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485 अष्टोऽध्यायः पद्मावती तल्लीन प्रभु, बकुला वचन सुशन्त । वकुलासे भगवानक्का, कथन दुःख दुर्दान्त ।। १ ।। पद्मावती अभिमत कथन, पूर्व जन्म अनुलेख । वकुलाका तेहि पुग् गमन, कहि सब ससि तेहि देख ।। २ ।। सखिसे बकुलाका कथन, प्रभू गमन धरि भेष ! प्रभु जननीं संवाद बहु, झन्त हुए विनिवेश ।। ३ ।। पद्मावतीपराजितश्रीनिवासै प्रति कुलमालिकासान्त्ववचनम् सूत उवाद :- शयनं प्राप पर्यङ्के श्रीनिवासो वृषाकपिः । तदा गता च सा देवी सेवार्थ बकुला शुभा ।। १ ।। षड्विधान्न समादाय सूपापूपरसान्वितम् । रभापतेस्तु बहुलभक्तिभावेन संयुता ।। २ ।। यानं श्रीनिवासं च वल्मीकस्थानसंस्थितम् । श्धसन्तं दीर्घनिश्वासं रुदन्तं नेत्रबिन्दुभिः । अभाषमाणं श्रीकृान्तं बभाषे बकुला शुभा ।। ३ ।। श्रीसूतजी बोले-जब वृषाकपि श्रीनिवास शय्यापर पड़े तव वह सुन्दरी खकुलादेवी सूप (दाल), पूए (पृआ) इत्यादि रसोंसे युक्त छ: प्रकारके अन्नको लेकर, रमापति के ऊपर बहुत भक्ति-भावसे संयुक्त होकर सेवा के लिये गुयी और वल्मीकके स्थानपर ठहरे हुए, दीर्घनिश्वास छोड़ते हुप, नेद्ध विन्दुओं से रोते हुए, सोये हुए तथा नहीं बोलते हुए लक्ष्मीपति श्रीनिवाससै वह सुन्दरी बकुला बोली । (३)