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487 अकुला बोली-हे कृष्ण ! वन्में अपते क्या देखा? किसलिये वह भयंकर दुःख है? हे देव ! मनात होने भी तुछ दुःखी के समान क्यों दीखते हो ? अपने मनक्षी बाद झहिये ! मेरे सवने गौरव मत दिखाइये ; बलराम, देवकी और वसुदेवो ही गौरव दिखाइये ! हे भूतनावन! तुमो भूखे देखकर दु:ख होता है । स लोकके दुःखको छुड़ानेवाले पुण्यश्री मूर्ति आपको नमस्कार है । हे देवताओं में श्रेष्ठ कृष्ण ! आपने किसी कन्याको देवा या किसी गान्धर्थीको ? किसके संगकी इच्छसे शाके चित्तमें दुःख होता है। (१०) का च दुण्यवत्ती बाला बालं भक्तवशं हरिम् । मोहयायास कामात व जानामि जगद्गुरो ।। ११ ।। वत् गोविन्द ! ते कार्य क्षणमात्रात्करोम्यहम् । मृगं दृष्ट्वा भयं वाऽप्तं चोरं वा क्रूररूपिणम् ।। १२ ।। पिशायभूतप्रेतान्वा न जानाम् िरमापते । मन्त्रं वा यन्त्रपूगान्वा मूलिका औषधान्यपि ।। १३ ।। कारयित्वा यथाशास्तं तत्सर्व शसयाम्यहम् । हे जगद्गुरु ! वह कौन झामार्ता एवं पुण्यवाली स्त्री है, जिश्ने अक्तके वशीभूत वारुिए रिको भी मोहित कर लिया, मैं नहीं जानती । हे गोविन्द! आप कविये; आपका कार्य में क्षणमात्र कर दूंगी । हे रमापति . मृग क्रूररूपी चोर, पिणाच, भूत वा प्रेश किसको देखकर आपको भए हुझा है, वह मैं नहीं जानती हूँ । मंत्र, पवित यंत्र अथवा मूल इत्यादि ओषधियोंको शास्त्रकी विधिसें इत्युक्तेऽपि हरौ तूष्णीं स्थित बकुलमालिका ।। १४ ।। आनीतं तत्र निःक्षिप्य तत्सीयमुपाश्रिता । पादसंवाहन कृत्वा सान्त्वयामास चासकृत् ।। १५ ।।