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488 इतना कहे जानेपर भी भगवान् के भूप रङ्प र वह बहुरुपालिका लाये हुए पदार्थोक्षो वहीं रख उनके पास बैठ एवं पकड़कर बारडार सान्त्वना (१५) सान्त्वयन्त्था तथाऽऽयासस्विन्न देहं समन्ततः । आपादमौलिपर्यन्तं कराभ्यां परिमृज्य च ।। १६ ।। बोधितोऽपि रमाकान्तो नोवाच वचनं यदा । तदा सा बकुला खेदादुवाच वचनं हरिम् ।। १७ ।। पृथक्कृत्वा छन्नवस्त्रं हस्तेन परिमृज्य च । सान्त्वना देती हुई उससे, श्वेदसे मोगी हुई देो शिरसे पैरतक हाथोंसे पोछकर जगाये जानेपर भी लक्ष्मीपति हरि जब वचन नहीं बोले तब वह बकुला ढंदे हुए वस्तको निकालकर एवं हाथसे मार्जत कर खेदपूर्वक हरिखे बचन छोली । देवदेव! जगन्नाथ ! पुराणपुरुषोत्तस ! ।। १८ ।। मनोगतं करिष्यामि नात्र कार्या विचारणा । सत्यं वद मन:स्थं ते मा लज्जा मा भयं कृधाः ।। १९ ।। रथाम्यविलम्बेन् यावन्मे वर्तते बलम् । इति तद्वचनं श्रुत्वा हरिरुष्णं समुच्छसन् ! उवाच चातिदुःखेन मन्दं मृध्दं मनोगतम् ।। २० ।। हे देव-देब ! हे जगन्नाथ ! हे सनातन ! हे पुरुषोत्तम ! आपके भनमें जो है वही करूंगी, इद्य विार नहीं करना चाहिये। मनक्री वातको सट्य-सत्य शक्षिये, लज्जा और भय मत कीजिये । बिना विलम्बके मैं उसको पूरा करूंगी । उसकी इस बातो सुनकर श्रीहरिने गर्म सांस छोड़ते हुए बहुत दुःखसे अपने मनकी बातको धीरे-धीरे कहा ! • {२०)