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490 मानुषं देहमासाद्य तां कन्यां कः पुमांस्त्यजेत् ? लोके विना जडमतिमन्नपानृविवर्जितम् ।। २७ ।। जीवनेन किमेतेन कार्यहीनेन मे सखि । घटयाऽशु वराङ्गी तामाकाशनृपनन्दिनीम् ।। २८ ।। तां विना न हि जीवानि सत्यमित्यवधारय । ताडितोऽहं शिलावधैर्हताश्वोऽस्मि वरानने ।। २९ ।। मज्जीवनं वृथा मातर्जातं वै वेङ्कटाचले । यतोऽभूदवतारोऽत्र पद्मावत्यर्थमेव मे ।। ३० ।। मैंने पद्याबती नामकी एक श्रेष्ठ सुन्दरी कन्या देखी है। उस सुन्दर भोंवाली, काले केशसे शेमित, सुरुष सुन्दरीम्रो देखकर लेरा घ्रान्त मम काम और मोहके वश हो गया है । हे वरानदे ! पूर्ण चन्द्रमाके सुसान मुखवाली, श्यामा, नील और गाणिक्यकी मूर्ति तथा साक्षात् लक्ष्मीके समान उद्य कन्यासे मुझे शीघ्र मिलाओं । बहुत जन्भमें उपार्जन किये हुए पुण्यसे यह मिलेगी ! हे सुन्दर वेताली । मेरा पुण्य उसके वर्शनहीसे परिपक्व हो गया है । इस संसार में मनुष्यशरीरको पाकर, अन्नपानते रहित कुंद-बुद्धिको छोड़कर, कौन पुरुष उस कन्याको छोड़ सकता है? हे सखि! इस मेरे व्यर्थ जीवनसे क्या ? उस सुन्दर अङ्गवाली आकाथराजकी पुतीको शीघ्र मिलाओो । उसके दिना मैं नहीं जीऊँगा, यह सत्य मानो । हे सुन्दर सुखवाली ! मैं पत्थरॉकी वर्षासेि उससे मारा गया हूँ। मेरा घोङ्गा भी मार डाला गया है। हे माता ! श्रीवेङ्कटाचल में मेरा जीवन व्यर्थ ही हुआ, क्योंकि यहाँपर मेरा अवतार पद्मावतीके हेतु ही हुशा था । (३०) पुत्रो मे वैरमापन्नः किं कृतं पूर्वजन्मनि । दृष्टिहीनेन विधिना निर्मिता कन्यका वरा ।। ३१ ।। अनायासेन मे सा स्यादिति मे निश्चिता मतिः । किं दृष्टं ब्रह्मणा पूर्व मात्पापं घोरदर्शनम् ।। ३२ ।।