पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/५१

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33 किमर्थ स्थापयत्यस्मिंल्लोके मां दुर्बलं विधि ' । एवं झुवति तस्मिंस्तु निहंतुकदयानिधिः ।। ३७ ।। कुमारः प्राह तं वृद्धं सोपहासमिदं वचः । यह सुनकर उपरोक्त कुमार ने कहा-यहाँ तो कोई मनुष्य नहीं है, कौंडि कहाँ रहता है, आप यह क्या बोलते हैं ? यह सुनकर वह वृद्ध ब्राह्मण बोला ! हाय ! हाय !! हम मरे, हाय ! !! हमारा अाश्रम बहुत दूर है । मैं वहाँ किस तरह जाऊँ ? इस शौच आचार, क्रिया कर्म, सब कुछ करने में लाचार और बन्धु बान्धवों से विवर्जित दुर्बल को इस लोक में ब्रह्माजी क्यों रखे हुए हैं?' यह सुन बिना कारण के ही दया के निधान वह कुमार उस ब्राहमण से उपहास के साथ च न् बोले । (३४-३७) 'तव विप्रशरीरं च जरितं फलितं तथा ।। ३८ ।। लम्बते पक्ष्मणी त्वक च न च पश्यसि किञ्चन । अतः परं च विप्रेन्द्र जीवनेच्छा तवाऽस्ति क्रिम ? ॥ ३९ ॥ न वा पूर्वोक्त वाक्यं तु सत्यं वा वद सुव्रत ! । इत्युक्तः प्राह विप्रोपि 'नास्तीच्छा जीवने मम ।। ४० ।। किन्तु नित्यानि कर्माणि ज्योतिष्टोममुखानि च । नाऽनुष्ठितानि देवानामृणी कथमहं पुनः ।। ४१ ।। त्यक्ष्यामि देहं भो राजन् ! सत्यमेव ब्रवीमि ते' । इत्युक्तः प्राह तं विप्र 'गृहाणेमं करं' ित्वति ।। ४२ ।। हे ब्राह्मण, तुम्हारा शरीर बुड्ढा हो गया और केश फलित हो गये, कौंहें बहुत जढ़ गई और पपनियाँ एवं चक्षु पटल नीचे लटक गये हैं, तुम कुछ भी देख नहीं सकते । इसपर भी हे ब्राह्मण क्या तुम्हें जीने की इच्छा है? अथवा हे सुन्नत, भया तुम्हारे पूर्वोक्त बाक्य सत्य नहीं है । यह सुन ब्राह्मण ने कहा-मुझको जीने की इच्छा तो नहीं है; किन्तु मैंने ज्योतिष्टोम आदि नित्य कर्म कुछ नहीं किये हैं । मैं देवताओं का ऋणी होकर अपनी देह कैसे छोड़ सकूगा ? हे राजन् !