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335 हे खेचर ! यह जनजीश्री पुत्री नहीं है, किन्तु यह दिप्रपत्नी है । राव (श्रीराम) जानजीको तुम्हारे झयग्रे मेरे पास रखकर लक्ष्मणके साथ धूमते हैं । हे परम उदार रावण ! तुम पेरे शिष्य हो, तुम प्रिवो, अतः व्यर्थ ही विप्रपत्नी के बारे में सीताका भ्रम मत करो ! ९क्षझको इस प्रकार छनसे. ठाते हुए, इस प्रकार जानकीन्नो वयने लोकमें लाकर, उसकी पूजा करने केलिये उस सुन्दरीको शीघ्र स्वाहामें स्थापितकर, पछ्ले रावणके दुराचारसे उसके वधकी प्रतिज्ञाकर, क्रोधसे अग्निमें प्रवेश को हुई और तनसे समयकी प्रतीक्षा करती ठट्टरी हुई, वेदवती नाम को सतीको मायासे सीताका आश्र धारण करपाकर वह मेषबाह्न (अग्निदेब) रावणको दिखलाते हुए, उसको प्रसन्न झरदे के लिये इोते-हे निशाचर ! इस सीताको लेकर तू थीव्र जाओं । । इत्युक्तः पावकेचायं तमादायागमत् दुतम् । हरे चास्रौ विशेषेण भक्तिवें रावणस्य च ।। ५८ ।। तस्मादग्निवचः श्रुत्वा त्वेवं तां जातकीं तदा । अज्ञानान्मन्यमादोऽसौ रावणो योहदर्पित ।। ५९ ।। जुङ्कां गत्वाऽशोकवने शिशुपावृक्षमूलतः सीताकृतिं तां संस्थाप्य विष्ण्वाविष्टा स राक्षसः ।। ६० ।। कृतकृत्यं तदाऽऽत्मानं मेने वै कालचोदितः । अग्निसे इस प्रकार कहे जानेपर उसको लेकर थीघ्र चला गया । भगवान् शंकर और अग्निसे रावणको विशेथ भक्ति थी, इसलिये अग्निके वचनको सुनकर, उसको अज्ञानसे जानकी मानते हुए, यह मोहसे भरा हुआ रावण लङ्कामें जा दिधिसे प्रेरित होकर अशोक छनमें शिशुपा वृक्षके भूलमें राम राम रटती हुई उस सीताकी झाकृतिको स्थापित कर चपनेको कृतकृत्य माना । (६०) रामा गत्वा तु त हत्वा रावण सगण खलम् ।। ६१ । सीतां प्राप्य जगन्नाथो युद्धान्ते पर्यचिन्तयत् । तां तु लोकापवादेन पावकेन विशोधिताम् ।। ६२ ।। ।