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जिघृक्षुणा राघवेण सीता चान्नौ प्रवेशिता । सीताद्वन्द्वं तत्र दृष्ट्वा प्रोवाच निजयामिनीम् ।। ६३ । । । का सा देवी तव समा तव रूपसमन्वितः । न जानेऽहं वराङ्गीं तां तव बिम्बनिभो शुभाम् । राघवेणैवमुक्ता सा जालकी वाक्यमब्रवीत् ।। ६४ ।। रामचन्द्रजी भी वहां बा, खल रावणको उसके गणोंके साय मारकर युद्धके अन्तनें सोलाको पाकर सोचने लगे। लोकके अपवाद-अयसे, अग्निसे शुद्ध क्री हुई उसको ग्रहण पारनेकी इच्छावाले राघवसे दह सीता अग्निमें प्रवेश करायी गयी । बाँ सीता युगलको देखकर रामचन्द्रजी अपनी पत्नी से बोले-बद्द छुम्हारे जैसे रूपवाली कौन हैं? पुम्हारे आकारवाली उस अंगवाली मैं नहीं श्रेष्5 सुन्दरीको जानता । रामचन्द्रजीसे इस प्रकार कहे जानेगर जानकी यह बात बोली । (६४) मद्दुःखं ह्यतया भुक्तं निनिमित्तं दयालुना । या सा वेदवती देव स्वाहायाः झुन्निधौ स्थिता ।। ६५ ।। तामङ्गीकुरु गोविन्द विवाहं विधिपूर्वकम् । इति सीतावचः श्रुत्वा रामो वचनमब्रवीत् ।। ६६ ।। जानकी बोली-हे देव ! इस दयालुनै मेरे लिये विना कारणही के दुःख भोगा है, यह वही वेदवती है जो स्वाहा के पास थी; हे गोविन्द !. उसक विधिपूर्वक विवाहू कर उसे ग्रहण कोजिथे। सीतांके इस वचन को सुनकर श्रीराभचन्द्रजी यह बात बोले । (६) एकपत्नीव्रतं मेऽद्य कृतं जानासि भामिनि । । द्वापरेऽङ्गीकरोमीति बहूनां वरदो यतः ।। ६७ ।।