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498 इत्येवमुक्तो भगवाञ्जगद्गुरुः सम्प्रेषयिष्यन् बकुलां स्वकारणात् । उत्थाय तल्पस्तिमितान्तरङ्ग स्तस्थौ तदानीं भृशहृष्टचेताः ।७२ ।। भुक्त्वाऽन्नमुत्तममसौ बकुलाप्रदत्त मानन्दपूणसुमनाः सुरवृन्दवन्द्यः । तस्थावंलङ्कृतवपुश्च विभूषणौधै मुक्ताफलैः सुरुचिरैरथ पुष्पसङ्चैः ।। ७३ ।। बकुला दोली-उत्तम-नुत्तम देवताओं से संस्तुत उस आकाशराजाकी पुरी, छिपी हुई लक्ष्मी झीर जाँपर सब सजाछद, सकलाविशारद है, श्रेष्ठ राजाकी उस सभा के पास जाती हूँ । अपने कारण से बकुलाको भेजते हुए जगद्गुरु भरदान् इस प्रकार कहे जानेपर शीघ्र ही शानन्दित हृदयसे शव्यासे उठकर, बकुला दारा दिये गये उत्तम अन्नको भोजनकर, पूर्ण रूपसे देवगणों से वंदिस्, आभूषणों के समूह, मुक्ता फल एवं सुन्दर पुष्पों के अलंकृत शरीर होकर बैठ गये । (७३) दिव्यां तुरङ्गीमारुह्य निर्भितां देवमायया । मार्ग विज्ञातुकामा तमापृच्छ्य बकुलाऽवदत् ।। ७४ ।। देवमाथा द्वारा बनायी गयी दिव्य घोड़ीपर चढ़कर भार्ग जाननेक इच्छावाली हो बकुला उनसे ब्रह्मा लेकर बोली । (७४) झुकुलोवाच मार्ग वद रमाधीश! गच्छामि नृपसत्तमम्' ।। ७५ ।। बकुला बोली-हे रमाधीश ! बाप मार्ग बताइये, मैं उस श्रेष्ठ राजाके पास जाऊँौ (७५)