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हमारुह्य बकुला सुवर्णमुखरी तदा । तीत्वऽगस्त्याश्रमं प्राप्य सखीस्तस्या व्यलोकयत् ।। ८४ ।। शिवालये शिवं द्रष्टुमागता यास्तु तत्र वै । तत्र दष्टवा वराः कन्या: का यूयमिति चाब्रवीत् । तया सम्भाषितः बाला ऊचुरेनाँ तथोत्तरम् ।। ८५ ।। तीरपर जा, वहां पर कृष्ण एवं रामको देख, उनको भक्तिभावसे प्रणामकर, पतीर्थ में उत्पन्न कमलोंले मेरे माते हुए उन दोनों भाइयोंका मेरे लिये पूजन घकरो । पश्चात् सुवर्णमुखरीको तैरकर वहां सुखपूर्वक टाओ और कन्याके लिये जो उचित् हो बह करो । देवताओं के देवता ॐ इस प्रार आज्ञा किये जाने पर, बकुलमालिका शीरे-धीरे शेषाचलको पारकर चली गयी ! श्रीनिवाससे जो कुछ कहा गया था व सब उस अबला किया । धोड़ेपर चढ़कर उस बकुलाने सुवर्णमुखरीको तैर अरस्त्यके आश्रमको पहुँच, पद्मावतीकी खिओंको, जो वहां शिवालय में शिवाजी के दर्शन के लिए आयींथीं, देखा और बहाँ उस श्रेष्ठ कन्याको देखक्षर “आप कौन है ?” ऐसा बोली । उसडे इस प्रकार कहे जाते पर वह बालाएँ इसके उत्तर बोली । (८५) बकुलां प्रति पद्मावतीसखीज्ञापितपद्मावत्युदन्तः वयमाकाशराजस्य सन्निधानगताः सदा । इतः पूर्वदिने कश्चित्पुरुषं तुरगस्थितम् ।! ८६ ।।

पद्मावत्याः समीपं च सम्प्राप्तं मन्यथाऽकृतिम् । दृष्टवत्यो वयं सर्वाः किराताकृतिशोभनम् ।। ८७ ।। दृष्ट्वा पद्मावती भीत्या ज्वरंतापविमूर्छिता । तत्तापस्योपशान्त्यर्थं राज्ञाऽज्ञप्ता वयं त्विह ।। ८ ।। .. .