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यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ। इस हाथ को पकड़िये । 34 तब उन्होंने ब्राट्मण से कहा-हे ब्राह्मण, आप मेरे (३८-४२) सोऽपि तत्करमालम्ब्य शनैस्तेन जगाम च । ववचित्प्रस्रवणं पुण्यं दर्शयित्वा शुभोदकम् ।। ४३ ।।

  • स्नानं कुर्वत्र गच्छावस्तवाऽश्रमपदं ततः' ।

इत्युक्तस्तेन विप्रेन्द्रः स्नात्वा तत्रोत्थितः पुनः ।। ४४ ।। अभूदभूतपूर्वश्च कुमारः षोडशब्दकः । कुमाराऽऽप सहस्राक्षः सहस्रवदनाऽभवत् ।। ४५ ।। सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्रभुजमण्डितः । तत्र देवाः समाजग्मुराकाशे विस्मिताः पुनः ।। ४६ । पुष्पवृष्टिर्महत्यासीद्देवदुन्दुभयस्तदा । नेदुः सर्वेऽपि तं देवास्तुष्टुवुः स्तोत्रसत्तमैः ।। ४७ ।। ब्राह्मण भी उनका हाथ पकड़कर उनके साथ धीरे-धीरे जाने लगा । कुछ दूर ले जाकर किसी पुण्य दर्शन, शुभ्र निर्मल जलवाले झरने को दिखाकर कहा कि हे ब्राह्मण आप इस झरने में स्नान कर लीजिये, बाद आश्रम चलेंगे । तदनुसार विप्रेन्द क्यों ही स्नानकर उसमें से बाहर निकले कि एकदम सोलह वर्ष के अपूर्व सुकुमार जवान हो गये और वह कुमार भी हजार नेत्रवाले, हजार मुखवाले, हजार मस्तकवाले हो गये । आश्चर्ययुक्त होकर सभी देवता भी वहाँ आकाश से आ गये और अनन्त पुष्प वृष्टि होने लगी, देव दुन्दुभि बजने लगी और उनको श्रेष्ठ स्तोत्रों से सब देवता सन्तुष्ट करने लगे । देवः प्राह द्विजं वृद्धं कुरु कर्माणि सर्वतः । कर्मानुष्ठानसिध्यर्थे धनं दत्तं च ते बहु ।। ४८ ।। इत्युक्त्वा त द्विजश्रेष्ठ तत्रवान्तरधीयत । तब सहस्र वदन भगवान ने उस वृद्ध ब्राह्यमण को कहा कि तुमका कर्मानुष्ठान करने के लिये बहुत धन दिया गया अत एव तुम सर्व प्रकार से कर्मानुष्ठान करी । ऐसा उस ब्राह्मण से कहकर वह अन्तधन हो गये। (४८) (४३-४७)