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507 वेणुगुल्मं स्वशिरसि दधान्दा धान्यपूरितम् । लम्बकण लम्बितार्धपयोधरा ।। १२० ।। अदन्तः शुष्कवदा तदाऽभूद्धर्यदेवता तय जालीकी कंचुकीसे शोभित, चीर. ६स्त्रको बन्धकर, ब्रस्माकी बच्चा बनाकर, शिक्षको यष्टि (डंडा) बनाकर, शि-मालाको दिखेर कु र, एच्चास वर्ष अवस्थावाली, जगदाधारा तीनगुणवाले ब्रह्माण्डको गुल् नार, गुञ्चा (धुंघी) रुपी मणिसे शोभित शङ्कमिश्र सुन्दर हर पनी हुई, धान्यसे भरी हुई, बांसकी टोकरी अपने मस्तकपर रखी हुई, जम्बे उदर, झर्ण और आधे स्तनवाली, बिना दाँतकी, सुखे हुए युखबाली व धर्म देवताकी मूर्ति बन गई । (१२०) ब्रह्माणं नाभिसञ्जातं सप्तमासवयोयुतम् ।। १२१ ।। रुदन्तं शुष्कवदनं कृशाङ्गी दीर्घबाहुकम् । । शिशु बद्भवा चीरवस्त्रे नृत्यन्ती.जगदीश्वरी ।। १२२ ।। यष्टि धृत्वा करे चागात्सबला धर्मदेवता । नारायणपुरं प्राप्ता नारदांब्ज वन्दिता ।। १२३ ।। पुरीं समागत्य जगर्ज चेत्थं पतीन् सुतान् बन्धुगणान्ददाभिः । श्रुत्वा वचस्तद्वदितं पुराङ्गनाः ऊचुस्तदा तां नृपवल्लभां प्रति ।। १२४ ।। नाभि से उत्पन्न ब्रह्मरुप सात मासुकी अवस्थावाले, दुबला-पतला शरीर और लम्बे हाथवाले, सूखा हुआ थुखवाले, रोते हुए बच्चेको अरने चीर वस्त्र में बाँधकर नापती हुई वह जगदीश्वरी हाथ यष्टि पकड़कर तथा नारद और ब्रह्मासे वन्वित हो नारायणपुर पहुँची और पूरीमें पहुँचकर वह इस प्रकार एजेंकर कहने लगी कि पति, सुत बन्धुगण इत्यादि मैं दूंगी । उसके कहे हुए इस बचनको सुनकर गांयकी स्रियाँ रानीले जाकर बोली ।