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ग्राभिका बोली-हे मङ्गलको देनेवाली देवी ! श्ल राजमद्दिीछे पास जाओ ! उसके वचनको सुलकर वह भनल्विनी धीरे बोली ! मैदेव्युवाच अहं दरिद्रा कुटिला सबालाऽभाग्यसंयुता । आह्वानं किं विनोदार्थ हास्यार्थं हसिताननाः ।। १३० ।। मद्वस्तं पश्यत च्छिद्रं मदाभरणसण्डलम् । नवधान्यसमाकीर्णगुल्मं गुञ्जाविभूषितम् ।। १३१ ।। (१६९) अन्नहीनं शिशु मां च दृष्ट्वा देव्येति नोध्रुवम् । नागच्छामि विशुलाक्ष्यः किं कार्य राजमन्दिरे ।। १३२ ।। वर्मदेवी बोली-मैं दरिद्र, कुटिल, बच्चेवाली एवं भाग्यहीनाहूँ. तुम हास्य युक्त मुखवाली हो । क्या मुझे हँसी और खेल के लिये बुलाती हो? मेरे झटे वस्त्र तथा आभरण-मण्डलको देखो ; नये धान्यसे भरी हुई टोकरी, गुश्चा (धुंधचीं) से विभाषित एवं अन्नहीन. मुझे, और मेरे बच्चोंको देखकर हो देवियां मारे पास आती है। हे बड़े नेत्रवाली, मैं नहीं जाऊँगी। राज-मन्दिर मेरा (१३२) धर्मदेवीवचः श्रुत्वा जग्मुस्ता धरणीं प्रति । यथोक्तं धर्भदेव्या तु तदाचरव्युश्च तां प्रति ।। १३३ ।। तासां तद्वचनं शृत्वा धरणी तां ययौ स्वयम् । उवाच धर्मदेवीं तां धरणी राजसुन्दरी ।। १३४ ।। धर्मदेवी के धचनको सुनझर वे सब धरणीदेवीके पास गयी, और जिस प्रकार धर्मदेवीने कहा सो सब उसले बोलीं। उनके द्वारा उसके चनको सुनकर क्षरणी उसूके एास स्वयं गंथी और धरणीदेवी. उस धर्मदेवीसे बोली । . (१३४)