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513 धर्मदेवी बोली-हे सुन्दरी । मैं सत्य कहती हूँ, मेरे बच्चेको दिन और रात्रिका बनाया सुन्दर पक्षा हुआ रसके साथ अन्न दो ; हे राजा ! उस स्त्री उसके उस मीठे वचनको सुनकर स्वर्णेदे पात्रमें क्षीरान्न अर्थात् खीर उस पचेको दिया । सोचेके पात्रमें रखा हुआ उस मनुष्यान्नको देखकर उ७ धर्मदेवीके बच्चेने नहीं खाया, और हे राजा ! वह रोने लगा ? अपने पुत्रको रोते हुए देखकर धर्मदेवी उसकी निन्दा कर कि-“हे दुष्ट थाचारवाला ! तू कन्छ, भूल तथा। फलझा खानेवाला दरिद्री है। राजाके लिये बना हुआ शुद्ध क्षीरात क्यों नहीं लाता है?' उसे पीटने लगी और बोली कि हे मात? ! यह सदा रोता रहता है, मैं क्या करूं । शिशु तं भत्र्सयित्वाऽथ सम्भोज्यान्नमनुत्तमम् । मोदरगतं चान्न पुत्रस्य हितकारणम् ।। १५३ ।। इत्युक्त्वा सा धर्यदेवी शिशोर्दत्तं नृपोत्तम । क्षीरान्नं स्वर्णपात्थं भुक्त्वा स्वस्था तदाऽब्रवीत् ।। १५४ ।। सत्यं वदामि सुश्रोणि ताम्बूलं देहि मेऽङ्गने । (१५२) उस बच्चेको झिडकर और उत्तम अन्न उसे खिलाकर वह धर्मदेवी उदर में गया हुआ अन्न शिशुको भलाईका कारण होता है"---ऐसा कार, हे नृपोत्सम ! बच्चेको दिये गये स्वर्ण-प के क्षीरान्नको स्वयं खाकर, स्वस्थ हो वाली, हे सुन्दरी ! मैं सत्य कहती हूँ, हे अङ्गने ! मुक्तको ताम्बूल दो । (१५४) इन्छुक्ता धरणीदेवी धर्मदेव्या पुलिन्दया ।। १५५ ।। एलालवङ्गकरनागवल्लीदलैर्युतम् । ताम्बूलधर्पयामास पुलिन्दायै पतिक्षता ।। १५६ ।। पतिव्रता धर्मदेवी पुलिन्दासे इस प्रकार कही जानेपर उस धरणीदेवीले इलायची, लवङ्ग, कपूर, नागवल्लीके साथ ताम्बूल उस पुलिन्दाको अर्पण यि । (१५६)