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517 ऋषि, पितर, राजा, गन्धर्व राजश्रेष्ठ, झाशीके स्वामी विश्वनाथ, विन्दुमाधव, विष्णुएद, प्रयाग गोदावरी-तीक्रे निवासी मरसिंह, जगन्नाथ, अहोविल, पाण्डुरंग, पंपाके स्वामी श्रुिपाक्ष, पुण्क वहवाला श्रीशैल, श्रीवेङ्कटाचल, श्रीवालहस्तीश्वर, शिवघटिकावलके रखनेवाले तथा विन्ध्याचलके नवासी रमात्मा कुमार नामक सुब्रह्मण्य, मधुसूदन, शंझर, चन्द्रेश्वर, गोकर्ण, हरिहर, गंगा, गोदावरी, कृष्णा, मलकी धोनेवाली तुङ्गभद्रा, कावेरी, कपिला, क्षीस् , सुवर्णमुखरी, मुकाम्बिका, भैरव, कामाक्षी, विशालाक्षी और सुखको देनेवाली मीनाक्षी को स्वयं मनुष्य शाथना का अभिनय करती हुई स्मरण किया और बोली कि हे कोल्लापुरकी स्वामिनी लक्ष्मी, मुक्त परदेशमें आयी हुई की रक्षा करो ! इस प्रकार स्वभावतः स्मरण करती हुई उस मैदेवताने औती की तीन ढेर बनाकर, मध्यवालीको स्वयं स्मरण कर, उस धरणीदेवीके हाथमें दूसरी एक यष्टि देकर कहा कि इनमें से एकको इस यष्टिले छू दो । इस प्रकार कही गयी उस वरणीदेवीसे मध्यवाली डेरके छू षा पर भावकी सम्प्ता जानकर, बानन्दिन् क्षौ श्चन् वोली । (१३) धमैडेव्युवाध वदेयं कारणं देवि ! दुहितुस्तेऽङ्गशोषणे । आगतः पुरुषेणास्याः येन केनाप्युपद्रवः ।। १४ ।। इतः पूर्वदिने कञ्चित्पुरुषं तुरगाऽस्थितम् । दृष्ट्वा मोहवशं याता कामज्वरसुपीडिता ।। १५ ।। श्रृणु मातः सावस्तार शप गुल्म सपुत्रगम् । भत्तरं बदरीवासं मातरं पितरं गुरुम् ।। १६ ।। पति श्रीवेङ्कटाधीशं कर्तुमिच्छति ते श्रुता । तथा भविष्यति शुभं वागिय नान्यथा भवेत् ।। १७ ।। स्वात्मानं तु शपे राज्ञि सत्यमित्यवधारय । सत्यं वदामि सुश्रोणि ताम्बूलं देहि मेऽङ्गने ।। १८ ।।