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320 के पाउ गिर हुआ है सो उसकी सखीसे पूछो । वह पुरुष इस अपराधक राजपुीने गौरवसे क्षमा करते है । यहें मेरा सुत्य वचन है, कि उस कन्याको देकर सुख पाओगी और नहीं देकर दुःञ्ज पादोगी; मेरी वाणी सूी नहीं होती । नहीं देनेसे वह एक िदनमें मर जायगा. इसमें संशय नही है। इस प्रकार उसके बचनको सुनकर धरणीदेषं पुनः बोली । (२९) किं मां वदसि दुर्वाक्यमसत्यं वामलोचने । इति तस्या वचः श्रृत्वा पुनराह यवस्विनी ।। ३० ।। क्षरणीदेवी बोली-हे वाभलोचले (सुन्दर नेवाली) असत्य एवं दुष्ट वचन मुझसे क्यों कहती हो ! उद्यको इस चातको सुनकर वह भजस्विनी पुनः बोली । (३०) नास्त्यं वचनं देवि मयोक्तं पूर्वमेव तत् । इति भीता तद्वचनाद्राजी वाक्यमथाब्रवीत् ।। ३१ !! धर्मदेवीं बोली-हे देवी ! मुझसे पूर्वमें कही हुई. वे बातें असत्य नहीं है ! इस प्रकार उसके चश्नसे डरी हुई रानी बोली । (३१) अयाचिता या कन्या कथं देया भविष्यति । इति चिन्तापरा राज्ञी धर्भदेवीं वचोऽब्रवीत् ।। ३२ । । धर्मदेवी बोली-याचना किये बिना भेरी कन्या कैसे दी जायेगी ? इस प्रकार चिन्तित रानीसे धर्मदेवी बौली । (३२) अचैव घटिकान्तै त्वाभागमिष्यति कावत् । अबला बहुवृद्धा च धर्मार्थकुशला भुविः ।। ३३ । ।