पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/५३९

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। मद्वाक्यं विश्वसन्ती त्वं राजानं चिोश्दथ् । सम्बोध्य साधुभार्ग त्वं समाश्रध नृपप्रिये । धर्मदेवी बोली-पृथ्दीपर धर्म और अर्थमें कुशल्, ल्हुत वृद्ध, कोई अबला . समक्षा कर अच्छे मार्गक्षा आश्रय लो ! हे नृप्रिये ! मेरे भाक्ष कन्याके निमित्त (३५) येन केनाप्युपायेन जीविता स्यात्सुला भभ । सुतां तस्यैव दास्यामि गिरिगह्वरवासिनः ।। ३६ ।। धरणी देवी बोली-सि किी उपायसे मेरी कन्या जीवित रहे, मैं उसी वंत के वन में रहनेवालेको पुत्रौ दूंगी ! : ' {३६) एवं चेत्ते सुता राज्ञि जीविष्यति न संशयः । पति वर्तते यत्र देवि तत्र व्रजाम्यहम् ।। ३७ ।। ' इत्युक्त्वा तद्वचः सत्यं द्रष्टुकामा धराऽब्रवीत् । 'धर्मेदेवी बोली-है रानी ! यदि ऐसा हो तो, तुम्हारी पुी जिंथेगी, इसमें संशय नहीं है । हे देवी । मेरा पति जहांपर है मैं वहीं जाती हूँ । इतना उसके कहने पर उसके पचनकी सत्यता देखतेकी इच्छा रखनेवाली क्षरणीदेयी बोली । ' ' (३७) 6 तदा ते वचनं सत्यं यद्येवं सम्भविष्यति ।। ३८ ।।