पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/५४

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

षष्ठोऽध्याय भ्रष्ठराज्यस्य शङ्कणनृपस्थ राज्यप्राप्तिक्रमः सूत उवाच :- वाल्मीकिना मुनीन्द्रेण किञ्चिदुक्तं श्रुतं मया । तदुच्यते भया यूयं श्रुणुध्वं मुनिसत्तमाः ।। १ ।। साङ्काश्ये सोमवंशीयः शङ्कणः पृथिवीपतिः । अनेकदेशसहितं बहुविस्तारसंयुतम् ।। २ ।। परम्परागतं राज्यं चक्रेऽखण्डपराक्रमः । क्षीण पुण्य शंखण नृपहिँ, राज्य नाश वनवास । दुख चिन्ता में नमंगिरा, वेङ्कटेश प्रभु आस ।। १ ।। गिरा कथन अनुकूल तब, वेङ्कटाद्रि पर जाय । देखत दृश्य अनन्त विधि, प्रभु सेवा हित आय ।। २ ।। तब विमान मंह देखि प्रभु, विनय राज्य-हित कीन्ह । स्तुति प्रसन्न भगवान तब, राज्य-दान तेहि दीन्ह ।। ३ ।। महिमा पुष्करिणी नृपहिँ, राज्य-प्राप्ति धर आय । वर्णित कथा अनेक हैं, यहि छटवे अध्याय ।। ४ ।। भ्रष्टराज्य शंखण की राज्य प्राप्ति श्री सूतजी बोले-मुनीन्द्र वाल्मीकीजी ने जो कुछ कहा था, उसे हमने सुना था और वही हम आप लोगों से कहते हैं। आप लोग सुर्ने-सांकाश्य देश में सोम वंशीय शंखण राजा अनेक देशों के साथ बहुत विस्तृत-परम्परा-प्राप्त अखण्ड राज्य को विभव एवं पराक्रम से युक्त होकर पालन करते थे । (१-२)