पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/५४२

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524, तथा सव्ये शङ्कराजो राजते २ाजवल्लभे । यत्कण्ठे कौस्तुभं रत्नं श्रुत्योर्मकरकुण्डले ।। ५२ ।। यस्य चक्रप्रभावेण दग्धा वारणासी पुरी । यस्य शङ्खध्वनिं श्रुत्वा विद्रवन्त्यसुरादयः ।। ५३ । । तद्भक्तलक्षणं वक्ष्ये . श्रुणु मातः ! सविस्तरम् । पद्मावती के कहे हुए श्रीभगवानडे और उनले भक्तके लक्षण हे माता । तुमसे आज्ञा पर सखियों के साथ मैं पवित्र आराम (बागीचा) में गयी थी । एक अनादि एवं पुरुष श्रेष्ठ बहाँ पर ाया । है माता ! मैं कमल-दल नयन उसके भक्तको स्मरण करती हूँ । इसके अतिरिक्त भै कुछ नहीं जानती हूँ, यह सत्य मानो । उस कृष्णके चरित्रको देवता ही जानते हैं ; पाताल लोक के इनेदाळे और मनुष्यगणं श्रेष्ठ इरियो लहीं जानते हैं । यह सत्य है कि सबसे उत्तम पुरुषोत्तम साक्षात् वहीं भगवान् है। उसके दक्षिण स्तमें उत्तम चक्र शोभता है एवं दाम इस्त, हे राजवल्लभे ! शङ्गराज पाञ्चजन्य शोझता है । जिसके कण्ठमे कौस्तुषरत्न, कानों में मञ्जरछे आकारकै कुण्डल है. जिसुकै चक्रके प्रभावो वाराणसीपुरी.जल गई थी और जिसके शस्त्र के शब्दो सुनयर राक्षसगण उर जाते है, हे माता! उसके भक्तोंके ऋक्षणको विस्तारपूर्वक वर्णन करती हूँ ; सुनो (५३) वेदशास्त्रपरा ये च स्वधर्माचरणे रताः ।। ५४ ।। वेदोक्तं कर्म कुर्वन्ति तद्भक्तान्विद्धि वैष्णवान् । '. . शङ्खचक्राङ्किता ये वाप्यूध्वपुण्ड्रधराश्व मे ।। ५५ । । नासत्यवचना ये तु पितृमातृमते स्थिताः । तद्भक्तलक्षणं त्वेतत्तं विना को नु जीवति ! ।। ५६ ।। तनयावचनं श्रुत्वा सानन्दा वाक्यमब्रवीत्। ।