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• सत्यं वद महप्राज्ञे भ्रमो वा ज्वरकारणम् ।। ५७ ।। जो बेद और शास्तके अनुकूल अपने धम्मले जाचरण में लगे रहते हैं, जो वेदमें कहे झुए छर्भको करते हैं, जो शङ्क और चक्रसे चिह्नि है, जो उध्वं पुण्डू को धारण करते है, जो असत्य यचनाले नहीं होते और जो पिता माता की आज्ञा में रहते हैं. उन भक्तोको वैष्णव सम्झी । उनके अक्तोंचे लक्षण उनके बिना. कौन जान सक्षता। है। पुीके वचनको सुनकर वह इरणीदेवी आनन्दं पूर्वक बोली-हे महाबुद्धि४ाली ! सत्य हो । यह तुम्हारा भ्रम है वा ज्वरका कारण है? (५७) 525 न सत्यं वदामि मातय दृष्टपूर्वो. महाप्रभुः । तद्दर्शनधियो मेऽद्य जायते देहशोषणम् । । ५८ ।। पद्मावती बोली-हे माता ! जिन महाव्रभुको पूर्वमें मैंने देखा है उन्हीके फिर दर्शन के विचार (चिन्ता) से मेरा शरीर सूखा जा रहा है। (५९) छ सान्त्वयित्वा सुतां भद्रा भर्तुर्भवनमभ्यगात् । पाकार्थ परमानन्दा भरिता भाग्यसम्पदा ।। ५९ ।। पुत्र्यङ्गशोषं संक्षुब्धं कुछूसन्तापसंयुतम् । अवदत्स्वपतिं प्राप्य पुत्रीकायविशेषणे ।। ६० ।। कारणं धर्मदेव्युक्तम्थं तच्छान्तिकारणम् । सर्व संबोधयासास पुत्र्या हृतमादरात् ।। ६१ । । शतानन्द बोले-अपनी पुत्रीका सान्त्वना देकर परम आनन्दसे भरी हुई तया भाग्यसे संपन्न धरणीदेवी पाक-किया करने के लिये अपने पति के. मन्दिरमें गई। पुलीके अंग सूखनेके दुःखसे दुःखी, धठिन तथा तापसे युक्त अपने पतिके पास पहुँचकर पुत्रीसे शरीर सूख्ने में धदेवी के कहे हुए कारण 'और उसकी शान्तिके