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37 स कदाचिन्भहाराजः कृतपुण्यविपर्ययात् ।। ३ ।। सामन्तराजभिस्सर्वेर्हतराज्यो महीपति तस्मात्सभार्यः सामात्यो देशान्निर्गत्य दुःखितः ।। ४ ।। दक्षिणां दिशमासाद्य रामसेतुं ददर्श ह । किसी समय अपने कृतपुण्य के क्षीण हो जाने पर उन्होंने अपने मंत्री एवं सम्पूर्ण राज्य को खो दिया और तब से अपनी स्त्री तथा अन्य अमात्यों के साथ देश से निकलकर परम दुःखित मन से दक्षिण दिशा में चलते-चलते श्रीरामसेतु को देखा । (३-४) तत्र स्नात्वा शनै: पश्चादाजगाम नदीं ततः ।। ५ ।। सुवर्णमूखरी तत्र स्नात्वा चोत्तरतीरत । पा सरः समागम्य तत्र स्नानं चकार सः ।। ६ ।। नित्यं च विधिवत्कृत्वा त्यवसद्दुःखपीडित । 'राज्याद्भद्रंशो वने वासः स्वामित्वं च हृतं परैः ।। ७ ।। पारतन्त्र्यं महद्दुःखं मरणादतिरिच्यते । भविता जीवनं कस्मात्क्वागच्छामि का गति ' ।। ८ ।। इति शोकसमाविष्टः तस्थौ निद्रामुपागत । वहाँ स्नान करने के बाद वह स्वर्णभुखी नामक नदी के किनारे आये और उसमें स्नान करके उसके उत्तर किनारे के पद्मसर पर आकर वहाँ भी स्नान किये और पूजनादि नित्यकर्म समाप्त कर दुखित होकर बैठ गये और यह सोचते-सोचते कि राज्यनाश, वनवास, पुनः स्वामित्व का भी छिन जाना और पारतन्य मरण से भी बढ़कर महान दुःख है। मेरा जन्म किसलिये हुआ, अब कहाँ जाऊँ, हाथ ! क्या करूं ! इत्यादि शोक संभूत हृदय से पड़े हुए निद्रा को प्राप्त किया । (५-८) अशरीरा जगादैनं तदानीं शोकपीडितम् ।। ९ ।। 'मा शुचस्त्वं महाबाहो ! धैर्यमालम्ब्य बुद्धिमान् । इत उत्तरदिभागे कोशमात्रे महागिरिः ।। १० ।। ।