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536 शुकोऽस्ति व्यासत्तनयः श्रीनिवासपरायणः । तमाह्वय महाराज ! शीघ्र ते पृथिवीपते ! !! स वक्ष्यत्यात्मनः सौख्यं वृत्तान्तं तस्य चादितः ।। ११४ ।। गुरुजी बोले-जैसे फलवाले वृक्षका आश्रय लेकर पृथ्वीधर बहुत से जीव जीते है उसी प्रकार आपके भाग्यक्षा आश्रय ले हृमकोग जीते हैं। मैं कभी कभी पृथ्वीतलपर आता हूँ; इसलिये मैं अच्छी तरहसे उनको नहीं जानता हूँ। शुकदेवजी सदा उन्होंके आश्रय में रहते हैं । अतएव हे महाराष्ट्र ! वह इस शाङ्गधारीकी स्थितिको जानते है । यहां से उत्तर दिशामें पचास कोउकी दूरीपर ध्यासषे पुत्र, श्रीनिवासके भक्त शुकदेवजी रहते है । हे पृथ्वीपति ! उदको आप शीघ्र ही लालेहये, वह आपका सुख साधन और उनका वृत्तांत आदिते वतावेंगे । (११४) बृहस्पत्युक्तया वियन्नृपकृशुक्रास्वानम् एवमुक्तोऽथ गुरुणा भ्रातरं ब्राह्मणप्रियम् । सन्दिदेश महाराज ! शुकश्रममरिन्दम ।। ११५ ।। स गत्वा वायुवेगेन रथेनादित्यवर्चसा । ध्यानयोगादुत्थितं तं दृष्ट्वा शुकमुवावह ।। ११६ ।। आकाशराजाके द्वारा शुकदेवजीका बुलाया जाना हे महाराज ! गुरुसे ऐसा कहे जाबेपर ब्राह्मण-प्रिय अपने भाई तोण्डमानको उस राजाचे शुकदेवजीके साश्रमको भेजा । बछ वायुवेग तथा सूर्य के समान तेजवाबु रणसे जाकर ध्यानयोगसे उठे हुए शुकदेवजीको देखकर उनसे बोले । (११६) श्रृणु तापसशार्दूल ! वचनं राजभाषितम् । पद्मावती विवाहाह सम्पन्ना गुरुपूजिता ।। ११७ ।।