538 थाकाशराजधिषणौ श्रीनिवासकृपाबलात् । महादानपरावित्थं भूयास्तां च दिवे दिवे' ।। १२४ ।। इत्याशिषा प्रशस्याथ पद्मतीर्थेऽवगाह्य च । कृत्वा माध्याह्निकीं सन्ध्यां त्यक्त्वा जीणपबर्हणम् ।।१२५।। प्त नवानि कुशाग्राणि विकृत्य मुनिसत्तमः । किरीटं बन्धयित्वा तैरुत्तमाङ्गनिबन्धनम् ।। १२६ ।। कवचं कल्पयामास कुशात्रैः कुसुमैस्तदा । तुछसीभणिमालाभिः कृण्ठकर्णविभूषितः ।। १२७ ।। आपादलम्बिकृष्णत्वकवचैस्समलङ्कृतः । अश्वयाऽधिरोप्यैनं विहाय स नृपानुजः ।। १२८ ।। श्रीशुझदेवजी बोले-हे उदार बिक्रम ! आपले पुरुषार्थकै धाधन इवं समस्त लोको पवित्र करवाले श्रीवेङ्कटाचलवासी रिको कन्यादान सम्बन्धी वाक्य झणाछा कहा । दान में लगे हुए आकाशराजा उन श्रीनिवासकी कृपाके दक्षसे दिन-दिन बृद्धि पावें । इस प्रकार आशीष प्रार्थना कर उन मुनिश्रेष्ठचे पद्मतीर्थ में स्नान कर, मध्याह्न सन्ध्या कर, पुराने उपबर्हण वस्त्रों) को त्यागकर, कुशाको तोड़कर, उनसे श्रेष्ठ अंग (मस्तक) के भूषण किरीटको बांधकर कुशके अग्रभाग क्षौर फूलोटे कवच बनाया; तुलसीमणिकी मालासे कण्ठ और कर्णको विभूषित किया ; सिरसे पैरतक शरीरको काले मृगचर्मके क्षश्च भूषित कर लिया और व राजाके छोटे भाई घोडेकी सवारीपर इनको घढ़ाकर ले आये। {१२८) तमायान्तं मुनिं दृष्ट्वा चतुरङ्गबलान्वितः । पुरोहितं पुरस्कृत्य कुशमूलफलोदकैः ।। १२९ ।। अभियातस्तदा राजा सन्तोषं प्राप सा पूरी । यानादुत्तीर्य राजेन्द्र ! साष्टाङ्गं प्रणिपत्य तम् ।। गजमारोप्य वगरी स पुरोहित आचयत् ।। १३० ।।
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