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39 निकेतनान्तर्भवने निवेश्य निधि मुनीनां प्रवरं स राजा । सम्पूजयामास विधानवित्तभो विद्यागुरुं ज्ञानगुरुं च नत्वा ! १३१ ।। आये हुए उस मुनिको देखकर शुझकै मूल, फल और जलके सति पुरोति को आगे कर, चतुरङ्गिनी सेनाके साथ व राजा अगवानी करने गये; तब था नगरी सन्तोषको प्राप्त हुई। हे राजेन्द्र ! पवारी से उत्तरकर, साष्टाङ्ग प्रणामकार, उनको हाथीपर घढ़ाकर, पुरोक्षित के साथ वह राजा नगरीमें ले जाये और उस राजाने मुनियों में श्रेष्ठ, विद्या और ज्ञातमें बड़े उन मुनिको अन्तर्मधनमें रख एवं प्रणाभ करके पूजा की तथा धिषण (बृहस्पति) के सम्मुख कन्यके निमित्त क्षपस्वी से पूछा । (१३१); तापसं परिपप्रच्छ कन्यार्थ धिषणाग्रतः । पद्मावतीं प्रदास्यामि भवद्भ्यामनुभोदितः । । श्रीनिवासाय कृष्णाय निश्चितो हि मया वर: !! १३२ ।। स तद्वचनमाकण्यै राजानं रंजसत्तम । शुकोऽब्रवीद्विरं पुत्रीकारणात्करुणान्वितः ।। १३३ । । राजा बोले-आप दोनों से अनुमोदन किये जाने पर मैं श्रीनिवासको अपनी कन्या दूंगा, मैं ने यही पर ठीक किया है । हे राजाओं में श्रेष्ठ ! श्रीशुकदेवजी पुत्रीके कारणसे करुणान्वित उनके इस दवनको सुनकर राजासे बोले । (१३३) पद्मावतींपरिणयोद्युक्तवियन्नृपे प्रति शुककृतश्लाधाक्रमः श्रौशुक उवाच मा कुरुष्व महाराज सन्देहं दानकर्मणि । धन्थोऽसि त्वं महीपाल ! कुलं पावनतां गतम् ।। १३४ ।। पितरस्तु दिवं प्राप्ताः चात्र कार्या विचारणा । किं त्वयाऽऽचरितं पुण्यं पूर्वजन्मनि भूमिप ! ।। १३५ ।। • • ' • •