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540 भगवानरविन्दाक्षः श्रीनिवासः सतां गतिः । जामातृत्वं समापन्नस्तस्मान्नास्ति तवाधिकः ।। १३६ ।। विलम्बो नैव कर्तव्यः शुभं शीघ्र विधीयताम् । वयं धन्याः कृतार्थाः स्मस्तव सङ्गन भूमिप! ।। १३७ ।। वयं तु तपसाराध्य कन्दमूलफलाशनाः । सर्वसङ्ग परित्यज्य न पश्यामोऽत्र तं विभुम् ।। १३८ ।। सङ्गतेस्तव पश्यामः श्रीनिवासं श्रिया युतम् । सङ्गतिस्तव भद्रा नो भवेज्जन्मनि जन्मनि ।। १३९ ।। एवं तमुक्त्वा राजर्षि तूष्णीमास स तापसः । आकाशराजा के प्रति शुकदेवजी की प्रशंसा करना श्रीशुकदेवजी बोले-हे महाराज ! इष्ट दान कर्ममें सन्देह मत कौजिये । हे राजा ! आप धन्या है, थापका कुल पवित्र हो गया । आपके पितर भी स्वर्ग में गये, इसमें विचार न करना चाहिये । हे ६॥जा ! आप३ पूर्व जन्भमें कौनवा पुण्य किया है? कमललयन तथा संतों की गति भगवान् श्रीनिवास आपके जामातृ (दामाद) हुए है, इसलिये आपसे बढ़कर कोई नहीं है । अत एब इसमें विलम्ब नहीं करना चाहिये, शुभ कर्मकों शीघ्र ही करना चाहिये । हे राजा ! आपके संगसे हमलोग भी धन्य हुएँ । सध भौगोंको छोड़कर, कन्द, भूल और फलको खाते हुए तपस्या द्वारा आराधन करनेपर भी हमलोग उस प्रभुको नहीं देखते हैं आपकी सङ्कगति से ही लक्ष्ी के साथ श्रीनिवासको देखगें । आपकी क्षुभ संगति हमलोगोंको जन्य-जन्म में मिले । इस प्रकार उस राजर्षिसे कहकर तपस्वी शुकदेवजी चुप हो गये । (१३९) शुकवाक्यं ततः शृत्वा स राजाऽऽनन्दनिर्मरः ।। १४० ।। वैयासकेर्वचः श्रुत्वा प्रशशंस प्रजापतिः । सन्ये कृतार्थमात्मानं व्यासपुत्र ! नमोऽस्तुते ।। १४१ ।।