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सुरुवाच नाडीकूटं विशेषेण सूत्रकूटं विशेषतः । थोनिकूटं चानुकूलं ग्रहाश्च शुभदर्शनाः ।। १५० ।। सर्व विचार्य भूपालः स्वार्थभावं समाश्रितः । सम्मन्त्र्य बन्धुमित्राचैः कन्यादानं कुरु प्रभो ।। १५१ ।। एवं गुरुवचः शृत्वा विचार्याऽशु विचक्षणः । भक्त्या परमया राजा स्वार्थभावं समाश्रितः ।। १५२ ।। ज्ञातिबान्धवसम्बन्धिसुहृन्स्त्रिजनैर्युत । मन्त्रं चकार राजेन्द्रः कन्यादाननिमित्तकम् ।। १५३ ।। ते सर्वे बन्धुवर्गाश्च राजानं प्रत्यपूजयन् । सभां च कारयामास. रत्नसिंहासने स्थितः ।। १५४ ।। वाचयित्वाऽथ पुण्याहं कृन्यानिश्चयकारणात् । ताम्बूलं दक्षिणां चादात्पूजयित्वा गणाधिपम् । भुजमुद्धृत्य राजेन्द्रः सभामध्ये वचोऽब्रवीत् ।। १५ ।। गुरु बोले-नाड़ीकूट विशेषता से है और सूत्रकूट भी विशेषता ही से है। योनिकूट भी अनुकूल एवं ग्रह भी शुभ दृष्टिके है । हे राजा ! है प्रभु ! स्वार्थभाव लेकर, सब विचारकर, बन्धु-भिदादिकों से मंत्रणा कर, कन्यादान दीजिये । हे राजेन् ! गुरुके इस प्रकारके वचनको सुन और शीघ्र विचारकर, स्वार्थभावक्षा आश्रय ग्रहण किया हुआ वह विचक्षण राजा बहुत भक्तिसे शाति (धाति), घांधव, सम्बन्धी, सुहृद, मित्रादिके साथ कन्यादान के लिये मंत्रणा झरने लगा । उन सव बन्धुओंसे भी राजाका अभिनन्दन करते हुए सभा करवायी और रत्नोंके आसनपर बैठे हुए वह राजा कन्याके निश्चय के लिये पुण्या वाचन करवा, ताभ्धूल और दक्षिण दे, गणेशजीकी पूजा कर, सभामें हाथ ठाकर बोले ।