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चैत्र शुक्ल त्रयोदशीको गठ्ठ पत्र लिखा जाता है । मैं अपनी पदावली नामक कन्या आपको दूंगा, यह भेरा विचार है । हे गोविन्द ! उसकी त्रिधाको विधिपूर्वक अंगीकार कीजिये । मेरे हृदयको श्री शुकदैवजी और गुरु बृहस्पति सर्वथा जानते है । हे पुरुषोत्तम ! कन्याके लिये आप सन्देह न कीजिये । वैशाख शुक्ल दशमी भूगुवारके शुभ विनमें बन्धुओं के साथ शाकर, मेरे बन्धुयान्धवों के साथ मेरा उद्वार पर, इर्ष मेरे मनोनुकूल पाणिग्रहण कीजिथे । हे पुरुषोत्तम ! आपको अधिक क्या लिखना है? हे केशव ! जो श्रीशुकदेवजी कहते हैं। उसे सत्य कीजिये । हे महानुभाव, भ्रमस्व कल्याण और गुणों के समुद्र, प्रभु , निय, सत्य, सुखस्वप, समस्त लोकके स्वामी तथा महात्मा ! आपको यश्च आशीर्वाद है। (१७४) इत्थं विखित्वा वरपत्रिकाँ शुभमाकाशराजो जगदीशसन्निधिम् । सम्प्रेषयामास शुकं महान्तं सपुखमित्रः सहबान्धवानुगः ! १७५ ।। क्रोशमात्रमुपागम्य शुकं वचनमब्रवीत् । इस प्रकार शुभ वरपवी को लिखकर पुत्र, मिद्ध एवं दान्धवके साथ आकाश राजाचे महात्मा शुकदेवीको श्रीजगदीशके पास भेवा; और एक कोस उनके साथ आकर राजाने शुकदेवजी से कहा । (१७५) येन केन प्रकारेण तस्य चित्तं वशीकुरु ।। १७६ ।। अयुतं स्वर्णबक्षं वा कोटिं वाऽर्बुदमेव वा । । दास्यामि द्रव्यनिचयं नात्र कार्या विचारण ।। एवमुक्तो महीदेवो गतः शेषाचलं प्रति ।। १७७ ।। । मध्यं गते दीप्तकरे महात्मा समागतस्तत्र शुकस्सशिष्यः । हरेर्जवन्याऽनुगतो विरागी तद्दर्शनाह्नादगता ध्वशेषः ।। १७८ ।।