पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/५६६

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अम्बामवीक्ष्य क्षायान्तीं बेङ्कटाद्रिशिखामणिः । माता च नागता कस्मादिति चिन्तापरो हरिः ।। एतस्मिन्नेव काले तु कृष्णद्वैपायनात्मजम् ।। १७९ ।। ॐ48 ददर्श सशिरःपाणि कृतकार्यविनिश्चयम् । शुकं प्राह स्म भक्त्यैव चासनादुत्थितो हरिः ।। १८० ।। राजा बोले-जिस सिी प्रकार ले उनके वित्तको दशमें कीजिये 1 लाख लाख स्वर्णके दश हजार अणवा करोड़ अर्बुद तक द्रव्य मैं दूंगा, इसमें विचार नहीं करना चाहिये । ऐसा कहे जानेपर उस ब्राह्मणवे शेषावलको प्रस्थान शिया, और रिठी साता भी उक्के पीछे-पीछे गयीं। उनके दर्शनके आन्द में मार्गको अन्तकर थिरागी मात्मा शुश्देवजी शिष्य के साथ सूर्य मध्याह्न होने पर वाँ माये । श्र:बेङ्कटाचलके शिखामणि श्रीहरि अम्बाको नहीं आती हुई देखकर यह विश्ता छरहे लगे कि. माता क्यौं नहीं आयीं । इसी समयके बीच चिरपर हाथ रखे हुए एवं कार्यको समाप्त किया । है ऐसै निश्चयसै जाते हुए कृष्णद्वैपायन के पुत्र शुकदेवजी को रिवे देखा, दौर आसनसे उठछर मक्तिपूर्वक सवसे बोले । श्री श्रीनिवास उवाच कार्य मदीयं विप्रेन्द्र एक्वं वाऽपक्वमेव वा । ८० श्रीनिवारा बोले-हे विप्रेन्द्र! मेरा कायै पक्व है या अपक्ष ? (भर्थात हुया वा नहीं) कार्य तव कृपसिन्धो पक्वमेव न संशयः ।। १८१ ।। शुभं वाक्यमिति श्रुत्वा दण्डवत्प्रणतं भुवि । समालिङ्ग्य शुकं कृष्णो भक्त्या हर्षवशं गतः ।। १८२ ।। अतिचिन्नचरित्रात्मा शुकमाह महीपते ।