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553 श्रीमान राजाधिराज, इन्द्रके किरीटसे विसे हुए पाटुवाधाले, हमारे बन्धुवोंमें श्रेष्ठ, धनवान गुण से पूर्ण, समृद्धिशाली, आझाश नामक, सुधर्म के पृद्ध, शासन में सुन्दर कीर्तिवाले, क्षाएको श्रीनिदाट शाङ्गधारीका दार-वार सभस्कार है ! बाल कश्रीनिवाससे यह विदित किया जाता है टि क्षापो लिखे हुए पतको देखकर इसे सन्तोष हुआ । (२०४) वैशाखशुद्धदशमीभृगुवा महोत्सवे ।। २०५ ।। अङ्गीकरोमि राजेन्द्र कन्यां तव विशाम्पते । यथा पुरा सागरो मे कन्यादानं सुकीर्तिमान् ।। २०६ ।। तथा दत्त्वा तु मे कृन्य भवेस्त्वं बहुकीर्तिमान् । यथा वै सागरान् पूर्वान् कपिलेन निपातितान् ।। २०७ ।। भगीरथो महाराजो गङ्गामादाय वै पुरा । उद्धृत्य कीर्तिमापेदे तथा त्वं राजसत्तम ।। २०८ ।। दत्त्वा मे सुभगां कन्यां तव पूर्वोत्तरं कुलम् । उद्धृत्य बहुलां कीर्ति लभस्वेतरदुर्लभाम् ।। २०९ ।। लिखितव्यं विशेषेण किन्तेऽस्ति नृपसत्तम । विशेषज्ञोऽसि धर्मात्मा वेत्ति सर्व शुको मुनिः । इति विज्ञापनं ज्ञेयं मम प्रणतिपूर्वकम् ।। २१० ।। है राजेन्द्र । वैशाख-शुक्ल-दशमी श्रृंयुवारके महोत्सवमें, हे विशाम्पति (राजा) मैं आपकी कन्याको अङ्गीकार करूंगा ! बिस प्रकार पूर्वमें सागरने मुझको कन्यादान दे सुन्दर कीर्तितवाला हुशाँ उसी प्रकार थाप भी मुझशो कन्यादान देकर बहुत कीर्तिवाले हो जाये । जिस प्रकार महाराज भगीरथने गङ्गाशो लाकर, कपिलके वृवारा पहिले के भस्म किये गये सावरके पुत्रोंका उद्धार कर कीर्ति पायी उसी प्रकार, हे राजसत्तम ! मुझको अपनी सुन्दरी कन्या देकर, अपने पूर्वके और