555 हे पुरुषोत्तम गोविन्द ! आप केवल विडम्बना करते हैं; प्रसिद्ध एवं संधारक्षे स्वाभी आपके कुल और गोत्र के विचारकी अपेक्षा नहीं है । मेरी आशाले आकाश राजा आपको कन्यादान करेंगे । हे जगन्नाथ गोविन्द ! मेरे काहनेसे जाप भी आकाछराजा एर कृपा करके इस कन्याको स्वीकार कीजिये । इति स्तुत्वा शुकस्तीत्रं विसृष्टी हरिणा पुनः । हरिसन्दर्शनाल्लब्धहर्षों राजपुरं ययौ ।। २१६ ।। श्रीनिवासाज्ञया शुकस्य वियन्नृपनगरं प्रत्यागमनम् गते तु मुनिशार्दूले भगवान् भक्तवत्सलः । भातरं सन्दशथि मार्गश्रान्ती वयोगताम् ।। बकुली प्रणिपत्याथ माधवो वाक्यमब्रवीत् ।। २१७ ।। श्रीनिवासकी आज्ञासे शुकदेवजीका आकाशराजके नगर में लौट आना (२१५) भगधान के दर्शनसे ििर्षत श्रीशुकदेवजी भगवान की तीव्र स्तुतिकर, पुनः भणधान से दिसर्जन किये जानेपर राजाके नगर गये। श्रेष्ठ मुनिसे चले जानेपर भक्तवसल भगवान वै वृद्ध एवं मार्गसे थकी हुई माताको देखा ! भाधव बकुलाको (२१७) श्रीनिवासाय बकुलाकथितपद्मावतीपरिणयोदन्तः श्री श्रीनिवास उवाच अम्ब ! कालविलम्बस्तै किमर्थ कमलानने । झा तत्र वातं नगरे तन्ममाचक्ष्व भामिनि ! ।। २१८ ।।
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