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श्रीनिवास के प्रति बकुलाङ्गे कहे हुए पद्मावतीके विवाहका वृत्तान्त 56 श्रीनिवास बोले-हे कभलषे समान मुखवाली माता! आपको विलम्ब किस कारण से हुआ ? उस नगर में क्या वार्ता है। वे भामिनि । तो मुझ से (२१८) बकुलोवाच साधिता बहुयत्नेन कल्या ते पुरुषोत्तम । दैवमेव परं मन्ये पौरुषं नैव कारणम् ।। २१९ ।। नारायणाश्रमात्कृष्ण ! धर्मदेवी समागता । दैवयोगेन सा भद्रा सम्प्राहा राजमन्दिरम् ।। २२० ।। उवाच तां भबद्दानयोग्यां कन्यां नृपात्मजाम् । कन्यापि त्वदृतेऽयं सा दैवाकाङ्क्षति लौकिकम् ।। २१ ।। तयोर्वाक्यं समाकण्र्य दातुं ते सोऽन्वमन्यत । इमां दास्यामहे पुत्रीं वेङ्कटाद्रिनिवासिने ।। २२२ ।। इत्थं सङ्कल्पयामास सभामध्ये सुदा नृपः । त्वयैव जातमेतद्धि न दैवं भवतः परम् ।। २२३ ।। बकुला दोली-हे पुरुषोत्तम ! आपके लियै कत्याका प्रबन्ध बहुत यत्नसे हुआ है; भाग्यहीको मैं बड़कर मानती हूँ; केवल पौरुषसे कार्यसाधन महीं होती । हे कृष्ण! नारायण के आश्रम से एक धर्मदेवी झायी थी, देवयोगसे वह राजमंदिर में राशी और हे राजाके पुत! उस कन्याको आपट्टी के योग्य बताया। व कन्या भी आपले अतिरिक्त और किसी प्राकृत मनुष्यको नहीं चाहती है । उन दोनों के दचन सुनकर उस राजाने आपद्दी को देनेका विचार किया है। यह पुती