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558 दक्षभोऽध्यायः लाने ब्रह्मादिक सुरन, गभन शेष विहगेश १ देवन व्याह सुरेशन, पहुँचे सत्र गिरिशेष ।। १ ।। नमस्कार दर्शन मिलन, अह्मा प्रभु संवाद ! रुद्रादिक पुनि थागमन, ईश ईशसे वाद ।। २ ।। श्रीको ला करवीरसे, शेषाचल पहुँचाया । पीछे व्याह रात्का, वर्णन कहि नहीं जाय ॥ ३ !! श्रीनिवासाज्ञया ब्रह्माद्यानयनार्थ शेषगरुडागमनम् मातुर्वचनमाकण्यं कृतवान् किं रमापतिः । तन्ममाचक्ष्व भगवन् ! सुविस्तारं सतां प्रिय ! ।। १ ।। श्रीनिवासकी आज्ञा से ब्रह्मादिको लाने के िलये शेष और गरुङ का आना जनक बोले-भाता के वचन सुनकर लक्ष्मीपति ने क्या किया ? गति क्या भगवान ! वह्न शुझसे विस्तारपूर्वक कहिये । त्वं हरेरसि भत्तेषु प्रथमोऽतिप्रियः सदा । तस्माद्धरिकथासक्तमनास्ते तु वदामि तत् ।। २ ।। स्वयमानन्दपूर्णोऽपि कर्मभुङ्नरवद्धरिः । मात्रा चोदितमाकण्र्य तामूचे मधुरं वचः ।। ३ ।। हे सन्तोंको (१)