पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/५७७

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शतानन्द बोले-आप भगवान के भक्तों में प्रथम और सदा लत्यन्त प्यारी है तथा भगवान की कछा में आसक्त है; इसलिये आपले पह कहता हूँ । स्वयं आनन्द के पूर्ण होने पर भी अनुष्यों जैसा कर्म थीी हरि माता झे चचन सुनकर उससे भधुर वचन बोले । (३) महोत्सवं विधातुं हि मम बुद्धिर्न जायते । अबन्धोर्बन्धुयुक्तस्य सम्बन्धो न प्रशस्यते ।। ४ ।। ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं कुलम् । तयोविवाहो मैत्री च नोत्तमाधभयोः क्वचित् ।। ५ ।। विवाहश् विवाहश्च समयोरेव शोभते । अहमेक: सोऽपि बन्धुसमेतो धरशीपतिः ।। ६ ।। कथं नृपस्यास्य मथोचिः स्यादबन्धुना बन्धुयुतस्य सङ्गः । भवेत्सुखं नेति वदंति सन्त इत्यद्य चिन्ता खलु बाधते साम् | ! ७ ! । बन्धुहीनस्य मे राजा कथं कन्यां प्रदास्यति । वासुदेववचः श्रुत्वा बकुला वाक्यमब्रवीत् ।। ८ ।। श्रीनिवास बोले-महोत्सवको सम्पन्न छरनेका मेरा विकार नहीं होता । विना बन्धुमालेका, बन्धुवालेके साथ सम्बन्ध होना अच्छा नहीं कहा जाता । जिन दोनों में धन वा कुल, ससान हों उन्हीं दोनों में विवाछु और भिन्नता अच्छी होती है-उत्तम और अधर्म के संाथ कभी नहीं । विवाह औ६ विवाद समान में ी शीभा पाते हैं; मैं तो एक हूँ और वक्षु धरणीपति बन्धुझे सहित है । बन्धु के सहित इस राजा साथ बृहस्पति मुझसे सम्बन्ध झैसे उचित होगा ? सन्त लोग इसमें सुख नहीं कहते । आज मुझको यः चिन्ता दुःख दे रही है कि भुझ बन्धुहीनको राजा किस प्रकार कन्या देगा । वासुदेव के वचनको सुनकर ऋकुला बोली ।