पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/५८

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40 तदनन्तर निर्मल स्फटिक के समान प्रभायुक्त, तिलक, अशोक बकुल पुन्नाग आदि वृक्षों से शोभित, रभ्थ उपक्नयुक्त, वक्त कमलों से घिरा हुआ, मछली, कछुये से पूर्ण, तीरस्थ ; वृक्षों से प्रकाशमान; फूले हुए आम्र से युक्त तथा वन को किलाराव, कलरवित तिलक विजौरे, श्वेतपुष्पी, आदिकों से पुष्पित ; करवा, भांडीर, वेंत आदि को झाडियों से भरी हुई, अशोक, सप्तपर्ण केतकी, अतिमुक्ता आदि अनेक नाना भांति के भनोहर फूलवाले वृक्षों से सुशोभित स्वामिपुष्करिणी को देखकर अत्यन्त आनन्दित हुए ! (२७-२८) कृत्वा तु कुहिकां तप्त निवासमकरोत् बुधः ।। २६ ।। स्नानं त्रिषवणं कुर्वन् वेङ्कटेशं समर्चयन् । व्रती च नियताहारो मासषट्कमवर्तत ।। २७ ।। वहीं पर कुही बनाकर वह विद्वान निवास करने लगे ! त्रिकाल स्नान तथा वेङ्कटेश की पूजा करते हुए, व्रतबन्ध, नियताहार होकर छ: मास पर्यन्त वहाँ ठहरे रहे (२६-२७) ततः स्वामसरा मध्यादुदातष्ठन्महाद्युतम् । अनेकसूर्यसङ्काशं शोभयच्च दिशो दश ।। २८ ।। दिव्यं विमानं तत्रैव तस्थौ देवः श्रिय:पतिः । शङ्खचक्रगदापाणिः श्रीभूमिसहितः पर ।। २९ ।। तब स्वामि पुष्करिणी के बीच से महा अद्भुत, अनेकों सूर्य, की तेजवाला, दशीं दिशाओं को शोभित करता हुआ, एक दिव्य विमान निकला, जिसमें शंख-चक्र गदाधारी श्रीपति श्री भगवान श्री तथा भूदेवी के साथ बैठे । (२७-२९) तत्र देवाःसमाजग्मुः ब्रह्माद्या मुनयोऽपि च । सिद्धा विद्याधराश्चैव किन्नराश्च दिशाधिपाः ।। ३० ।। वसवः सप्त मुनयः साध्या रुद्राः समागताः । भेरीमुरजवाद्यानि नेदुश्चाकाशवत्र्म नि ।। ३१ ! गीतं नृत्तं च वाद्य च चक्रुः सर्वाश्च देवताः ।। ... तुष्टुवुः परमोदारैर्वेदमन्त्रैर्दिवौकसः ।। ३२ !! .