पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/५८६

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

सत्यलोकं, तपोलोक, जनलोक, तिसके पश्चात मलश, स्वर्गलो तथा महीतल में क्रमसे सात्विक ऋषियोंने उस अद्भुतदर्शन, धासुदेवके समान आकर तथा अग्निके समान मुखवाले सब लोकॉके स्वामी एवं सबसे पूर्व उत्पन्न साक्षास ब्रह्माको देखा । कोई उनके गाम्भीर्य गुण के कारण उनको नारायण कते थे, कोई उनके मुखकी सिन्नडाके हेतु कहते थे कि यह नारायण नहीं है। पश्चात उन सब ब्राह्मणोंने इंसपर चढ़े हुए, भूषण पहने हुए एवं कवचके आडम्र (घेरा) से युक्त उनको ब्रह्मा जान उनके सेवकसेि पूछा । (५७) कं वा देशं प्रति जनाः कुतो बागमनं विधेः । ग्राह्मण बोले-हे सेवको ! झांसे और किस देशी और ब्रह्माका जाना होता है । गच्छामोऽद्य विवाहार्थ श्रीनिवासस्य भूतलम् ।। ५८ ।। तेनैवाकारिताः सर्वे सत्यलोकान्महीसुराः । तत् श्रुत्वा वचनं साहिीत्राः सपुत्राश्च सशिष्याः सपरिग्रहाः । एवं विभवमास्थाय ब्रह्मागाद्वेह्माटावलम् ।। ६० ।। वादित्राणां स्ववेनैव दुन्दुभीनां च निस्वनैः । आपूरितं जगदिदं सशैलवनकाननम् ।। ६१ ।। सेवकाण बोले-आज हमलोग श्रीनिवासके विवाह में पृथ्वीपर जाते हैं । हे ब्राह्मण ! उनसे हो हम सब सत्यलोकसै बुलाये गये हैं। उनके उस वचलको सुनकर अग्निहोत्र, पुर्वोों, शिष्यों साय सब महर्षि उनके पीछे पीछे गये । इस प्रकारके विप्रवमें होकर ब्रह्माजी श्रीवेङ्कटाचलको धाये और दंदुभी धादि बंजाओंके शब्दसे पर्वत औय वनके धाय यद्द सारा संसार भर गया । : (६१)