पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/५९

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4 फिर तुरन्त ही ब्रह्मादि देवता, मुनि, सिद्ध, विद्याधर, किन्नर, गन्धर्व, दिक्पाल, अष्टावसु, सप्तर्षि, साध्य, रुद्र आदि आए और आकाश में भेरी-मुरज आदि वाद्य बजने लगे । सव देवता नाच, गान, वाद्य करने लगे एवं परमोदार वेद मंत्रों से भगवान की स्तुति करने लगे । ३२) ससम्भ्रमं समुत्थाय शङ्कणः प्रणिपत्य च । स्तुत्वाऽथ देवदेवेशं व्यजिज्ञपदिदं नृपः ।। ३३ ।। देवदेव ! जगन्नाथ ! जगद्रक्षणतत्पर । भवद्गतं क्रमाऽयातं स्वामित्वं मम केशव ! ।। ३४ ।।। हृतं राजभिराक्रम्य राज्थाद्भ्रष्टोऽस्म्यभाग्यत रक्ष मां करुणासिन्धो ! महोदार जगत्पते ! ।। ३५ ।। न जाने व्रतशीलं च नियममं वा जपादिकम् । दिष्ट्या दृष्टो मया स्वामिन्नमोघं दर्शनं तव इत्युक्तः कालमेघाभो बभाषेऽथ श्रियःपतिः ।। ३६ ।। कौतूहल से उठकर शंखण ने भी प्रणाम तथा स्तुति करके देवादिदेव भगवान से यह निवेदन किया कि हैं देव-देव जगन्नाथ ! हे संसार की रक्षा करने में तत्पर । मेरा जो स्वामित्व, क्रमानुसार सुझको मिल चुका था, वह नष्ट हो गया तथा मैं राजाओं से आक्रमित होकर अभाग्यवश राज्य से भ्रष्ट हो गया हूँ। अस्तु हे करुणासिन्धो, हे परमोदार, हे जगत् पते, अब मेरी रक्षा करी । मैं न तो झतशीलादि ही जानता हूँ, और न जपाद नियम ही जानता हूँ । किन्तु भाग्यवश ही मुझे हे स्वामिन आपके दर्शन मिल गये। यह सुनकर काले मेघ के समान वर्णवाले, श्रीपति बोले । (३३-३६) श्रीनिवास उवाच मा शुचस्त्वं मया दत्तं स्वामित्वं पूर्णमागतम् यस्मात्तव महाभक्तिः स्वामिपुष्करिणी जले ।। ३७ ।। ये केचन समागत्य स्नानं कुर्वन्ति संयताः । स्वामिपुष्करिणी तीर्थे स्वामित्वं प्राप्नुयुनराः ।। ३८ ।।