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73 आनन्दबाष्पसंपूर्णनथनौ तौ परस्परम् । स्नोहात्प्रफुल्लवदनौ भुखं दृशतुर्मुदा ।। ८३ ।! पितुर्मुखं सुतोऽपश्यत्तवक्त्रं हरिस्तथा । ततः सन्तुष्टमन्नसौ लेभाते परमां मुम् !! ८४ ।। तौ क्रीडन्तौ श्रीनिवासङ्गह्माणं देत्रसंसदि । पितापुत्रौ तदा दृष्ट्वा सत्यलोकनिवासिनः ।। ८५ ।। लेभिरे परमानन्दं तन्भायामोहिताः सुराः । श्रीनिवास होले-हे तात ! तुम्हा’; कस्य:ण इों, उठो इौर मुझ आतुर और हे चतुरानन ! यह तो आश्चर्य है तुम्हारा मन रे ६र्शन के लिये भी उत्सुक नहीं हुआ । शुम्हारे बिना कहीं भी कोई भीं, इीं जीवित रहृतं । हृषीकेश के इस प्रकार कहे जानेषः ब्रह्मा इत्या श्रीनिवास भी दो भूहूर्ततश् चुप रहे और झानन्दके आंसूसे पूर्ण नेत्रवाले एवं स्नेहे से फुल्ल गुश्रुवाले हो वे दोनों आनन्द से परस्पर नुख देखते ही रहै । पितावै भुखको पुत्र तथ” पुतवे मुखो हरि देख रहे थे; तब सन्तुष्ट अन्नवाले वे दोनों पूरन आनन्दको प्राप्त हुए । देवताओं की सभामें उन पिता-पुत्र, श्रीनिवास और ब्रह्मा को क्रीड़ा करते हुए देखकर उनकी माया भौहित् सत्यलोक)ि निवासी देवताओंने रम अझ्रन्द लाभ किया । (५) ‘च तेन सदृशः पुत्रो न तेन जनको भुवि' ।। ८६ ।। इत्येवं प्रशशंसुस्ते भक्तिरुहवशं गताः । देवता बोले-उनके समान पृथ्वीश्र न पुत्र है और सू उनको समान पिता ही ऐसा कहते हुए अक्ति और स्नेहके वशमें होकर वे सब उनकी प्रशंसा करने लगे । (८६)