पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/५९३

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575 तदा ते जननी पुत्र ! करवीरपुरं गता । तेन दुःखेन सन्तप्तस्त्यक्त्वा वैकुण्थ्मुत्तमम् ।। ९२ ।। इहागतो वेङ्कटाद्रिं नात्रापश्यं निकेतनम् । श्रव वल्मीकगं नित्यं चोलभृत्यः कुठारतः ।। ९३ ।। प्राहरन्मां राजभार्याताडितो धेनुकोपतः । बृहस्पतेः प्रसादेन जीवामि कृरुणानिधेः ।। ९४ ।। अभिवादय कल्याणीं मातरं मम् नन्दन ! । इत्युक्तो बकुवां ब्रह्मा ववन्दे हरिमातरम् ।। ९५ ।। चतुर्मुखे प्रति श्रीनिवास द्वारा बताया हुआ विवाहका वृत्तान्त श्री भगवान बोले-हे पुद्ध ! द्वापर के हुए कर्मको ध्यानसे सुनौ । अन्तर्मे िकये हे कमलासन ! वैकुण्ठ में शेष व्यापर शयन करते हुए मुझको भूमुने अपने चरण प्तलसे दक्षस्थल में तुम्हारी माता के समक्ष ही मारा । हे पुत्र ! तब तुम्हारी माता करवीरपुरमे चली गयी; उस दुःखसे संतप्त मैं ने उत्तम वैकुण्ठको छोड़कर यहां श्रीवेङ्कटावलपर आकर कोई घर नहीं देखा । यहाँ वल्मीक में सदा ठहरे हुए मुझको, गौके ऊपर कोपके कारण राजभाथसेि पीटे गये चोल राजाके भृत्यने कुठार से मारा । करुणानिधि बृहस्पतिकी कृपासे मैं जी रहा हूँ । हे पुत्र ! मेरी माता कल्याणीका अभिवादन करो। इतना कहे दा देर ब्रह्माने हरिकी माता बकुलोकी षग्वना की । (१५) ब्रह्मोवाच जननी तव गोविन्दं कुत्रेयं जनिता पुरा । ' . एतदाख्याहि भगवञ्छूोतुं कौतूहलं हि मे ।। ९६ ।। ।