पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/५९४

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ब्रह्मा बोलै-४ गोविन्द ! यह आपकी माता पूर्व में घ हाँ पैदा हुई थी ? हे भगवन ! यह थाप मुझझे छहिये, मुझको सुनने के लिये कौतूहल हो रहा है। यशोदा वकुला भूत्वा वर्तते बेङ्कटाचले । रक्षितोऽह तथा भद्र ! बहुकालं पितामह ।। ९७ ।। आपत्काले तु यो रक्षेत् तं विद्यात्पितरं गुरुम् । कदाचिन्मृगयासक्तः इवतीर्थसभीपतः ।। ९८ ।। तासां भध्ये विराजन्ती कन्या काचिदुपागमत् ।। ९९ ।। यामाकाशप्रभोः पुत्रीं नाम्ना पद्मावतीं विदुः । तामवेक्ष्यातिमोहान्ने मनस्तामेव कांक्षते ।। १०० ।। तामेव घटयाशु त्वं पुत्रोऽसि परमो मम । बदत्येवं हृषीकेशे शुश्रुवे दुन्दुभिस्वनः ।। १०१ ।। श्रीक्षगवान बोले-हे भद्र पितामह ! यशोदा ही कुंला होकर श्रीवेङ्कटानल पर रहती हैं; उसके द्वारा बहुत काल तक मेरी रक्षा की गयी है ! आपत्तिकाल में जो रक्षा करे उसको पिता वा गुरु बानना चाहिये । किसी समय मृणायामें लगा श्रुक्षा में पद्मातीर्थ के समीप थाया। वहाँ के पुण्य वनमें बहुतसी कन्याएँ आमीं; उनके बीच में शोभितहुई कोई कन्या आयी, जिसको आकाशराजकी कन्या पावती के नामले जानते है । उसको देखकर अत्यन्त भौहसे मेरा मन उसीको चाहता है । तुम उससे मुझे मिलाऔ, क्योंकि तुम मेरे सबसे बड़े पुत्र हो । अगदान के ऐसा कहनेपर दुन्दुभी का शब्द सुनायौ दिया । (१०१)