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580 समाश्वास्याथ गोविन्दो यथायोग्यं तदा नृप ! । स्थीयतामिति चोवाच सर्वेषां पुरतो हरिः ।। १२० ।। इसी समय चन्द्रमा और सूर्य भी आये। कामदेव भी रुरधारण करके रति साथ घोड़ेपर आये ! हे महाराज ! पुत्र और परिवारके साथ कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, वामदेव, गौतम, विश्वामित्र, वशिष्ठ, वाल्मीकि, जमदग्निषे पुत्र, पुलस्त्य, दधीचि, शुनःशेप, गालव, गाग्र्य, कृष्ण इत्यादि सब मुनि, उरगों के साथ गान्धर्व, अप्सरा और सब सिद्ध उस बड़े पर्वतपर आये। इस प्रकार से भहर्षि, देवता और राजा आदि सब लोग उत्सुक हो शीघ्रतासे विवाहोत्७क्ष देखनेके लिये आये । है राजा ! गोविन्दने तब झबको यथायोग्य शासन देशर सबसे कहा कि

  • बैठिये” । (१२०]

ब्रह्ममाज्ञया विश्वकर्मकृतपरिणयापुरनिर्माणक्रमः ततोऽभूद्रासुदेवस्य विश्वकर्माऽक्षिगोचरः। तमालोक्य हृषीकेशः इन्द्रमाह स्म मन्युमान् ।। १२१ ।। ब्रहभाकी आज्ञासे विश्वकर्मा द्वारा विवाहके योग्य नगरनिर्माण तत्पश्चात विश्वङम भगवानको दृष्टिगोचर हुश्रा; उसको देखशर रोषयुक्तः भगवान हृषीकेश, इन्द्रसे बोले । इन्द्रास्य गर्वबाहुल्यं पश्य विश्वकृतोऽधुना । भ्रातुर्वाहुबलादेष न जानाति हिताहितम् ।। १२२ ।। यथान्यान्पश्यति सुरांस्तथा मामपि पश्यति । साधु जातं सुरश्रेष्ठ ! त्यजैनमसमञ्जसम् ।। १२३ ।। अन्यं शालाकर्मरतं शुद्धं भद्भक्तिसंयुतम् । नियोजयं सुरश्रेष्ठ ! देवतागृहकर्माणि ।। १२४ ।। (१२९)