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581 इत्यप्रियं वचः श्रुत्वा विश्वकर्मा नरेश्वर । प्रणिपत्याह गोविन्दं वर्धकीं ‘भयविह्वलः ।। १२५ ।। श्रीभगवान बोले-हे इन्द्र ! इस विश्वकर्मके अभिमान् की अधिकताको देखो ; भ्राप्ताके बाहुबलके कारण यह अपना भला बुरा नहीं देखता है। जैसे यह और और देवताओंको देखता है वैसे ही मुझको भी देखता है । हे सुर श्रेष्ठ ! यह अच्छा ही हुआ, इस अबिनीतको छोड़ो । हे सुरश्रेष्ठ ! मेरीी भषितसे युक्त, शुद्ध, शाला-कर्म करनेवाले किसी दूसरे (कारीगर) को देवताओं के घर बनाने में लगाडो राज ! इस प्रकारशे अप्रिय वचनको सुनकर भयसे विह्वल हो वधंकी (राजमिनी) (१२५) भगवंस्त्वदभीष्टं यदज्ञानान्न मया कृतम् ।. क्षमस्व मम दौरात्म्यं भगवन् ! करुणानिधे ! ।। १२६ ।। देवादिदेव ! देवेश स्वल्पस्य मस कारणात् । इयान् कोपः किमर्थ ते सञ्जातो भगवन् ! हरे! ।। १२७ ।। एवं सम्प्रार्थितः शकं श्रीनिवास उवाच ह । सभां कारय देवेन्द्र ! देवार्थ मुनिकारणात् ।। १२८ ।। पञ्चाशद्योजवगणविशालां सुमनोहराम् । सुविचित्रा च सहीतीं त्रिंशद्योजनमायताम् ।। १२९ ।। वर्धकी बोला-हे भगवान ! आपका जो अभिष्ट है सो मेरी अज्ञानतासै महीं किया गया; हे करुणानिधि भगवान । भेरी दुष्टताको क्षमा कीजिये । हे देवताओं में आदि देव, देवताओं से स्वामी, हरि ! मेरे तुच्छ अपराधके कारण ताएको. इतना क्रोध किस लिये हुआ ? इव . प्रकार प्रार्थना किये . शालेपर श्रीनिवास इन्द्रसे बोले-हे देवेन्द्र ! देवता और मनुष्यों के लिये पचास योजन छम्वी एवं तीस योवन चौड़ो सुन्दर तथा सब तरहसे बढ़िया एक बहुत बड़ी (१२९)