पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/६०

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42 तेषां ब्रतानुगुण्येन स्वामित्वं भवति ध्रुवम् । स्याद्धि तेषां पराधीनभावलेश: कदाऽपि न ।। ३९ ।। त्वं च गत्वा महीपाल ! कुरु राज्यमकंटकम् । समक्षं देवदेवानामित्युक्त्वाऽन्तरधीयत ।। ४० ।। श्रीनिवास जी बोले :-बुख मत करो, मेरा दिया हुआ राज्य तुम्हें पहले ही मिल गया और तुम्हारी इस भक्ति से यह भी वर देता हूँ कि जो कोई यहाँ आकर संयत हो स्वामिपुष्करिणी तीर्थ में स्नान करेगा वह मनुष्य अवश्य ही स्वामित्व लाभ करेगा । उसके व्रतादिकों के गुण एवं माहात्म्य से अवश्य स्वामित्व होता है और उसको पराधीनता का भाव भी कभी नहीं होता । अस्तु हे राजन ! अब तुम अपने राज्य में जाकर अकंटक राज्य करो । सब देवताओं के सामने ही यह कहते कहते वे अन्तध्यन हो गये । {३७-४०) स्वामिपुष्करिणीशब्दो रुढस्तस्मिन् सरोवरे व्युत्पत्तिः कथिता तस्यास्तीर्थानां स्वामिनी यतः ।। ४१ ।। स्वामिपुष्करिणीत्येव तस्मात्पूर्वं पुरातनैः ।। प्रोक्तेदानीं भगवता व्युत्पत्तिस्तस्य सम्मता ।। ४२ ।। स्वामित्वस्य प्रदानाच्च स्वामिपुष्करिणी त्वियम् । स्वामिपुष्करिणी जो शब्द है यही उस सरोवर में रूढ़ शब्द है, और इसलिये उसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है, क्योंकि यह पुष्करिणी तीर्थो का स्वामी है, इसलिये ही प्रचीन काल से लोगों ने तथा भगवान ने अपने मतानुसार इसको स्वामि पुष्करिणी कहा है । किन्तु यह एक बात और है कि यह स्वामित्व प्रदान करती है, इस कारण से भी यह स्वामिपुष्करिणी है । (४१-४३) अहो ! महत्वं तीर्थस्य दर्शनं पापनाशनम् ।। ४३ । । धन्यास्त्वेते महाभागा एतद्विषयवासिनः । इत्युक्त्वा त्रिदशाः सव ययुः फुल्लहृदम्बुजाः ।। ४४ ।। शाङ्कणोऽपि महाराजः सभाय हृष्टमानसः । अवरुह्य गिरेस्तस्मात्स्वं च देशं जगाम ह ।। ४५ ।।