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ॐहैं कल्याणवेदीं स ददर्श रत्नसम्पूर्णकशैः सुकृताँ विचित्राम् । स्तम्भैर्युतां मौक्तिकरत्नलिभितैनरायणस्यैव नृपेण निर्मिताम् ।। १३६ ।। वासुदेवस्य भवनं वासवो विश्वकर्मणा । कारयामास राजन्द्र सरत्नस्तम्भगापुरम् । धनधान्यसमाकीर्ण रत्नतोरणमण्डितम् ।। १३७ ।। वापीकूपशतं वाजिगजानां भवनं तथा । वासवे तु गते राजन् ! वासुदेवोऽवदत्सुरान् ।। १३८ ।। भगवान वासुदेवके वचनको सुकर विश्वकमकेि साथ इन्द्रदेव राजा नगर को गगे । हे धरणीयति ! हे महाराज ! विश्वामने राजाके नगरको छ६ योजन इढ़ाकर, बनों क्षौर पहाड़ी की विषसताको क्षाटकर एवं उस विषम भूमिको समतल बनाफर सभा बनायी । विचिद्ध-विचिव ग्रह, सभा एवं कप के गण्ड (खेमा) वनाये । रत्नोंचे बड़ी हुई सुन्दर एवं विचिन्न सीढ़ियोंकी मुक्ता और रत्नोंसे जटित स्तम्भबाली, राजाकी बनवायी हुई, नारायणकी वेदी जैसी, कल्थाणवेदीको इन्द्रने देखा ! हे राजेन्द्र! इन्द्रते विश्वकर्मा से रत्नोके स्तम्भ और गोपुर (फाटक) वाला, धनधान्यसे भरा हुआ, रत्नोंके तोरणसे शोभित वासुदेवका भवन एवं सैकड़ों वापी, कृप और घोड़े तथा इत्यादियों के लिये भवन बनवाये । ' (१३८) देवादिकृतपरिणयार्थ भगवत्प्रार्थनाभ्युपमः श्रीमगवानुवाच आकाशराजस्य सुताऽस्तिथा सुरा इच्छामि कर्तु किल तत्करग्रहम् । अङ्गीकृतं चेद्भवदीयमण्डलै रङ्गीकरोम्यद्य तु राजकन्थकाम् ।। १३९ ।।