पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/६०२

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

ॐ४८ वासुदेववचः श्रुत्वा वासुदेवात्मजादिकाः । वाक्यमाहुर्महाराज ! वासुदेवपरायणाः ।। १४० ।। भगवान के विवाहप्रस्तावकी देवताओंसे स्वीकृति श्रीभगवान बोले-हे देवतागण! साकाशराजाकी जो कन्या है उहका पाणिग्रहण करने की इच्छा मैं करता हूँ ! आप लोगों को मण्डलीसे यदि यह बात स्वीकृत हुई तो मैं उध राजकन्याको स्वीकार करूंगा ! हे महाराज ! भगवान के भक्त तथा उनके पुतगण उनके वचनको सुनकर यह ववत बोले । (१४०) ब्रह्मादिदेवा ऊचुः वयं तु दासभावेन तिष्ठामः पुरुषोत्तम । त्वत्प्रसादाद्वयं सर्वे पश्यामोऽत्र महोत्सवम् ।। १४१ । ह्यादि देवता बोले-हे मुरुषोत्तम ! हमलोग यहां पर लाकार होकर रहेंगे; आपकी कृपासे मलोग इस महोत्सवको देखें६ । शंकर बोले । (१४५) शङ्कर उवाच विनोदवचनं कृष्ण भाषसे प्राकृतो यथा । मनसस्ते प्रशस्तं चेत्क्रियतामिति चाब्रवीत् ।। १४२ ।। शङ्करस्य वचः श्रुत्वा प्रशशंस हसन् हरिः । ततश्चतुर्मुखः प्राह शेषाचलपतिं प्रति ।। १४३ ।। हे कृष्ण ! झाप प्राकृत भनुष्यों के जैसा विनोद के वचन कते हैं, आपक्षी १च्छा हो तो कीजिये । शंकरके वचनको सुनकर हँखते ऋए भगवान के उमकी प्रशंसा की। तब ब्रह्माने शेषावलके स्वामीसे कहा । १४३) अहमोवाच सर्वज्ञस्त्वं दयासार सत्यसङ्कल्पवानसि । अष्टवर्ग ततः कार्य विवाहात्पूर्वमेव हि ।। १४४ ।।