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588 विवाह के लिये करवीरपुरसे लक्ष्मीको बुलाना पुत्रके वचनको सुनकर जगदीशने करवीरपुंर रहती हुई कलनयनी लक्ष्मीको स्मरण किया । हे राजन ! उसको वियोगिनी मानकर, देवताओं में श्रेष्ठ भगवान लौकिक मनुष्य के समान दुःखी होकर, लोकरीतिके जैसा रोने लगे और कहने लगे-हे पुत्र! उसके बिना यह समा नहीं शोभतीं ! हे महाप्राज्ञ ! आप स्त्रियों के साथ देवतागण और मैं नहीं शोभता । जिस प्रकार आकाश में चन्द्रमाके बिना तारागण, बिना धृष्टके वन, बिना पंखी, विड़ियाँ, बिना फलके वृक्ष, तथा बिना धनके सुहृद होते है, हे महाप्राज्ञ ! हम लोग भी उसके बिना उसी प्रकार है । वासुदेवळे वचनको सुनकर, हे पृथ्वीपाल ! धहु महाबाहुवाले शङ्कर वासुदेवसे बोले । (१६३) शङ्कर उवाच किमर्थ रोदनं तात किं ते कार्य विडम्बनम् । असङ्गस्थाप्रमेयस्य चाकूरवरदस्य च ।। १६४ ।। अक्लेशकस्य देवेश ! किमर्थ रोदनं वृथा । स च तद्वचनं श्रुत्वा नीलकंण्ठमभाषत ।। १६५ ।। शङ्कर बोले- हे तांत, संगति से रहित, अप्रेमय एवं अश्रूर को वरं देनेवाले! आपका यह रोना किष्ट लिये है ? आपको कौनसे. कार्यकी घबड़ाइट है ? हे देवेश, विना दुःखवाले ! आपका व्यर्थ ही रोना किस लिये हैं ? उस ववन को सुनकर भगवान भी नीलकण्ठसे बोले । (१५५) श्रीभगवानुवाच त्वं न जानासि भोः शम्भो ! बालभावेन पौत्रक । यदा ब्रह्माऽवसाने च न किञ्चिदवशिष्यते ।! १६६ ।। तदा क्षीरोदके शम्भो ! निरालम्बे निराश्रये । सा मे शय्या सखी भूत्वां क्रीडते हितकारिणी ।। १६७ ।।