एतादृशीं विला शम्भो ! मम सौख्यं कृथं भवेत् ? । वदत्येवं जगन्नाथे वेधा वाझ्यमभाषत ।। १६८ ।। 588 श्रीभगवान बोले-हे पौखक शंनु ! दुम बालएल्के कारण नहीं धानते हो । जब ब्रह्मा के भी अन्त होतेपर संसार में कुछ श्री नहीं शेष रह जाता, तर वह बिना अवलम्बके एवं बिना आश्रय के क्षीर समुद्र में मेरा हित करनेवाली तथा शय्या सखो होकर क्रीड़ा करती है । हे शम्भु ! इस प्रकार की उस (लक्ष्मी) के बिना मेरा सौख्य कैसे होगा ? भगवान के इस प्रकार कहदेपर क्षह्मा बोले । (१६८) ब्रह्मोवाच नोक्तं त्वयेदं गोविन्द ! पूर्वमेव जनार्दन ! । अद्य मां कमलावाथ ! राह्वा वियोजय ।। १६९ ।। सोऽपि पुत्रवचः श्रुत्वा द्युमणि शीघ्रमाह्वयत् । षण्मुखेन महाराज सोऽपि तत्र समागतः ।। १७० ।। नाम भक्त्या स्तुत्वाऽथ प्राञ्जलिः सम्मुखे स्थितः । भास्करं भक्तिनश्धाङ्ग भगवानाह हृङ्गतम् ।। १७१ ।। ब्रह्मा बोले-हे गोविन्द ! हे जनार्दन ! आएने पहले यह. नहीं कहा । हे लक्ष्मीको लाने के लिये आज मुझको नियुक्त कीजिये । भगवान ने पुत्र के वचनको सुनकर षट्मुखसे दिनभणि सूप्यको बुलबाया । हे महाराज ! सूथ्र्य की वहाँ आ गये और प्रणाम किया; भक्तिर्वक स्तुतिकर, हाथ जोड़कर संमुख ठहर गये । भक्तिन्ने नम्र शरीरवाले सूप्यैसे अपवानले अपने हृदयकी बात कही । (१७१) श्री श्रीनिवास उवाच भगवदुक्त्या रमानयनाय करवीरपुरं प्रति सूर्यगमनम् श्रुगालवासुदेवस्य नगरं गच्छ भानुमन् । तत्रास्ते जगतां माता तामान्य ममान्तिकम्' ।। १७२ ।।
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