ॐ]; “न शासनं हृतं मेऽद्य मातः ! केनापि भूतले । शयनं तु कृतं तेन तव भवृऽिद्य भूतले ।। १७९ ।। येन वैशासनं दत्तं मातर्मे कृपयेदृशम् । निश्रेतन्नोऽद्य पतितो भत जीवति ते न वा ।। १८० ।। भत लव जगन्नाथस्त्वशक्तोऽद्य विभाति मे । कदा द्रक्ष्यामि देवीं तामित्यास्ते प्रलपन्निति' ।। १८१ ।। सा त्वद्वचनमाकण्र्य समायाति न संशयः । श्रीभगवान बोले-तुम संसारकी अभिवृद्धि करनेवालेरर उसका स्नेष्ट सदा रहता है; तुम्हारे जातेके आनन्दसे ही वह मेरे पास आ जायगी और उसके आहे उपाय भी कहता हूँ । उसके द्वारपर खड़े होकर, आंखोंको भलते हुए आंसू छोश्वा करना । हे सूर्य ! तुमको देखकर संसारकी माता कुछ दुःखसे थश्ड़ायी हुई, इस प्रकार कहती हुई, तुमको सान्त्वना दैमा कि पृथ्दीपर से तुम्हारे शासनको किसने रण कर लिया, सो कहो ! तुभ अत्यन्त दुःखी ड्रोकर उस देवीसे इस प्रकार कङ्कना कि हे माता ! मेरा शासन पृथ्वी तलवर किसीसे नहीं रण किया गया है। , परन्तु हे माता! जिस तुम्हारे भक्त ने मुझे कृपाकर शासनाधिकार दिया है उसचे ता याध पृथ्वीतलपर शयन किया है। तुम्हारे भर्ता आज अचेत होकर पड़ हुए हैं । वे जीते हैं या नहीं। तुम्हारे भर्ता जगन्नाय जाज हभको शक्तिहीन मालूम पड़ते है और “उस दैवीको कब देगा' यही प्रलाप करते रहते हैं। वह तुम्हारे वधनको सुनक्षर आवेगी, इसमें संशय नहीं है। ' उपायं तु ततः श्रुत्वा किञ्चिद्धास्यमुखान्वितः ।। १८२ ।। बभाषे भक्तिालस्राङ्गो भयभक्तिसमन्वितः । 'सर्वज्ञा सर्वलोकेषु विश्रुता कमलालया ।। १८३ ।। जानाति हृद्वतं सर्वं कथं भो विश्वसेद्विभो । अरोगस्य च रोग हि कथं वक्ष्यामि ते हरे' ।। १८४ ।।
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