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48 तद्राज्यहारिणः सर्वे परस्परजिगीषया । मम राज्यमिदं राज्यं ममै' वेत्युद्यतायुधाः ।। ४६ ।। अन्योन्यमाहताः सन्तः परिक्षीणाश्च तेऽभवन् । अहा ! इस तीर्थ का कितना महनीय महत्व है कि इसके दर्शन से पापपुञ्ज नाश हो जाते हैं और वे महाभाग तो परमधन्य हैं, जो इसके पास वास करते हैं। यह कहते हुए सब देवता आनन्दित हुदय से चले गये । महाराज शंखण भी अपनी स्त्री के साथ प्रफुल्ल एवं सन्तुष्ट हृदय से उस पर्वत पर से उतरकर अपने देश को गये, जहाँ उसके राज्य को हरण करनेवाले आपस में ही एरस्पर उसकी पाने की इच्छा से युद्धार्थ उद्यत हो रहे थे, और एक दूसरे को मार-मार कर आपस ही में क्षीण ही रहे थे । (४४-४७) 'मध्येऽस्माकं न कस्यापि राज्यं तस्यैव तद्भवेत् ' ।। ४७ ।। इति निश्चित्य मनुजाः प्रेरिता राजभिस्तदा । गोदावरीतीरदेशे शङ्कणं ददृशुर्मुदा ।। ४८ ।। तव राज्यं महाभाग ! तुभ्यं दत्तं च राजभिः । आगच्छ भुङक्ष्व राज्यं त'दित्युक्तस्तैर्महीप तिः ।। ४९ ।। स्वकं देशं ययौ राजा काम्भोजं नाम नामतः । अन्ततः राजवगों ने यह निश्चय करके कि यह राज्य हम लोगों के मध्य किसीका नहीं होगा । बल्कि उन्हीं राजा का होगा, उन्हें ढूंढने के लिए दूत भेजे, और उन्होंने गोदावरी तीर पर उस शंडण राजा को सन्तोष से देखा और कहा कि हे राजन ! यह राज्य आप ही का है, और राजपुरुषों ने आपही को िदया है । इसलिये आप चलिये और अपना राज्य भोग कीजिये, ऐमा कहने पर वह राजा अपने देश कांभोज़ में गये । (४८-५०) ततः सर्वेऽपि राजानः शङ्कणं च वरासने ।। ५० ।। स्थापयित्वा जलैः पूतैरभिषिच्य ययुः पुरात् । सोऽपि स्वदेशमासाद्य स्वामित्वं प्राप्य पूर्ववत् ।। ५१ ।।