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देवानां पूर्वदेवानां मुनीनामूध्र्वरेतसाम् । भुजे भुजङ्गभूषस्य वामं संस्थाप्य वै भुजम् ! १९० ।। तथाऽपरं ब्रह्मकण्ठे निधायागाद्भुजं स्वभूः । करवीरपुरसे लक्ष्मीका शेषाचल आना व लक्ष्मी उसके वचनको सुनकर दुखित हो आदर से उस आशा के अनुसार, रथपर चढ़कर, सूर्य के साथ वायु वेगसे रमापति भगवान के पास पहुँच गयीं । लक्ष्मीके आगमनका समाचार सुनकर उसके दर्शनके हरुलुक हो शक्तिहीन जैसे हरि उसी क्षण उसके सम्मुख गरे । उन्होंने जो रूप धारण किया, चक्षु देवताओं, असुरों एवं जितेन्द्रय मुनियोंको अद्भुत मालूम हुआ । सपॉके आभूषण धारण क्षरतेवाले श्रीशिवजीकी भुजापर अपने वाम इस्तकी तथा दूसरे स्तको ब्रह्मा गलेमें डालकर स्वयंभू हरि आये । (१९०) एवंभूतं श्रीनिवासं ददर्श कमलालया ।। १९१ ।। रथादुत्तीर्य वेगेन किञ्चिद्धास्यमुखाम्बुजा । चाम्पकं पुऽपनिवयं विकीर्य पदपङ्कजे ।। १९२ ।। समालिङ्ग्यातिभक्त्यैव मुहूर्तद्वयमास्थिता । तदालिङ्गनमात्रेण पुष्टाङ्गो विष्टरश्रवाः ।। १९३ ।। कुशल परिपप्रच्छ तस्याः साऽपि हरेस्तदा । पितरौ सर्वलोकानां रथानारायणावुभौ ।। १९४ ।। संप्राप्तौ स्वस्थता राजन् सर्वदेवनमस्कृतौ । इस प्रकारके श्रीनिवासको लक्ष्मीचे देखा और वह कुछ हंसीकै साथ वेगसे रथसे उतरकर, चरणकमलोंपर चंपा पुष्पके समूहकी वर्षाकर, अत्यन्त भक्तिसे थाविङ्गन करके दो मुहूतै ठहर गयी । उसके क्षालिङ्गन मातसे ही विष्टरश्रवा 76