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59 न मे सन्ति महाप्राज्ञ क्रुः करोत्यभिषेचनम् । मातापितृविहीनानां का गतिर्वै भविष्यति ।। १८ ।। जलसे भरे हुए घड़ोंक्षो सूखसे लपेट चारों दिशाओं में रख एवं उनके बीपमें रत्नोंकी पीढ़ा रखकर शीघ्रताके साथ देवताओं की स्त्रियां जोली-हे पुरुष श्रेष्ठ ! उठिये और छाप सूत्रके घेरेमें बैठिये । इस प्रकार कहे जातेपर दील भुखवाले भगवान् हरि नों से असू छोड़ते हुए स्यिौं के आगे बोले-हे महाप्राज्ञ ब्रह्मा ! मेरे विवाछुके उत्सवमें तैलसे, आशीर्वाद के क्रभसे मेरा कौन अभिषेक करेगा ? हे महाराज ! जिसकी माता अथवा पिता विवाह और बिपत्ति में न हों, उसके जन्म एथं जीवनको धिक्कार है । हे महाप्राज्ञ ! मुझे भागिनी (वनि), भाई, मामा अथवा भागिनेय (भागिन) नहीं है, कौन अभिषेक करेगा ? माता एवं पिता से वियोगी लोगों की छैसी गति होती होगी ! (१८) न च मातृसमं मित्रं जनकेन समं सुखम् । न भार्यासदृशं भाग्यं न पुत्रेण समा गतिः ।। १९ ।। न हि भ्रातृसमो बन्धुर्न विष्णोर्देवता परा । इति सम्भाष्य गोविन्दो लीलामानुषविग्रहः ।। २० ।। रुरोद लोकरीत्यैव पश्यन् ब्रह्माननं हरिः । उपधार्य हरेर्वाक्यं सभवः कृञ्जसम्भकः ।। २१ ।। सान्त्वयन्वासुदेवं तु भारतीमा भूपते । भrता के समान भित्र, पिताके सभान सुख, भायके समान भाग्य, पुलके समान गति, भ्राताके समान सम्बन्धी एवं विष्णुसे उत्तम देवता नहीं है । इतना ककर लीलाके लिये ही शरीर धारण कर६देवाले हर ब्रह्मा के मुखको देखते हुए लौकिक ढंग से रोचे लगे । हे पृथ्वीके स्वामी ! हरिके वचनको सुनकर शिव साथ ब्रह्मा उनको सान्त्वना देते हुए बोले । (२१) ब्रह्मोवाच किमर्थ मोहयसि दो सायापञ्जरवासिवः ।। २२ ।।