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500 कोऽपि नास्तीति यत्प्रोक्तं तदसत्यं चतुर्भुज । पुत्रोऽहं तव कल्याण पौत्रः साक्षात् विलोचनः ।। २३ ।। भन्मथोऽन्यः पुमान् पुत्रः पौखपुत्रः षडाननः । जगत्प्राणो ज्येष्ठपुत्रः स्नुषा ते भारती हरे ।। २४ ।। । सरस्वत्यादिकाः सर्वाः न्नियस्त्वत्पादसेविकाः । त्वं पुमान् परमः साक्षाज्जगद्धात्री तवाङ्गना ।। २५ ।। क्रीडामात्रमिदं मन्ये त्वत्कृतं पुरुषोत्तम । एवं विभवमापन्नस्त्वं नो मोहयसे वृथा ।। २६ ।। इत्थमुक्त्वा चतुर्वक्त्रो वासुदेवं रमासखम् । रमां सङ्केतयामास सा रमा बाक्यमब्रवीत् ।। २७ ।। ब्रह्मा बाले-माया के पिञ्जर में रहते हुए हमलोगोंका आप किस लिये मोहते है? हे चतुर्भुज ! आपवे जो यह कहा कि मेरे कोई भी नहीं है। सो असत्य ही है। हे कल्याण ! मैं थापका पुत्र हूँ, साक्षात् शिव आपके पौक्ष है और कामदेव आपके दूसरे पुढ है, एवं षट् पृखं (कार्तिकेय) पौतके पुत्र है । हे इरि ! संसार के प्राण (वायु) आपके बड़े पुत्र है और सरस्वती आपकी पुत्रवधू है । सरस्वतौ इत्यादि सब स्त्रियाँ आपके चरण की सेवा करनेवाली है; वाप साक्षात् परम पुरुष है और आपकी ही स्त्री संसार की माता है । हे पुरुषोत्तम ! इसकी मैं आपका बनाया हुवा खेल मात्र समझता हूँ। इस प्रकारके विभवसे युक्त आप हम लोगों को व्यर्थे ही मोहते हैं। ब्रह्मादे लक्ष्मींफे सखा (हरि) से इस प्रकार काकर लक्ष्मीको संकेत (इशारा) किया और वह्न लक्ष्मी बचन बोली । (२७) श्रीरभोवाच विदितं हृदयं देव ! तव वैङ्कटवल्लभ । तैलाभ्यङ्गादि कर्माणि करिष्ये पुरुषोत्तम ! ।। २८ ।। उत्तिष्ठ त्यज दुःखं ते समारोह वरासनम् ।